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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (२४९) असंमोहश्च वैद्यस्य शस्त्रकर्मणि शस्यते ॥
तिर्यक्छिन्द्याल्ललाट दन्तवेष्टकजत्रुणि ॥ २२ ॥ असंमोह अर्थात् तिसकालमें करनेयोग्य, कार्यमें अच्छी प्रवृत्ति ये सब शस्त्रकर्ममें वैद्यको कीर्तिकारक हैं और मस्तक, भ्रुकुटी मसूढा, जत्रु ( हसली ) ॥ २२ ॥
कुक्षिकक्षाक्षिकूटौष्ठकपोलगलवकणे ॥
अन्यत्रच्छेदनात्तिर्यक् शिरास्नायुविपाटनम् ॥ २३ ॥ और कुक्षि, काप, नेत्रकूट, ओठ, कपोल, गल, अंडोंकी संधि इन्होंमें तिरछा छेदित करे और .. इन्होंसे अन्य जगहमें तिरछा छेदन किया जावै तो शिरा और नसोंका पाटन होजाता है ॥ २३॥ __ शस्त्रेऽवचारित वाग्भिः शीताम्भोभिश्च रोगिणम् ॥
आश्वास्य परितोऽगुल्या परिपीड्य व्रणं ततः ॥ २४॥ __ शस्त्रको प्राप्त किये पश्चात् संदर वाणियोंकरके और शीतल पानीकरके रोगीको आश्वासितकर पीछे अंगुलीकरके चारों तर्फसे व्रणको पीडितकर ॥ २४ ॥
क्षालयित्वा कषायेण प्लोतेनाम्भोऽपनीय च ॥
गुग्गुल्वगुरुसिद्धार्थहिंगुसर्जरसान्वितैः॥२५॥ पीछे मुलहटी आदिके काथसे क्षालित कर फिर रूईआदिके फोहेसे पानीको दूर कर पीछे गूगल, अगर, सरसों, हींग, राल ॥ २५ ॥
धूपयेत्पटुषड्ग्रन्थानिम्बपत्रैघृतप्लुतैः ॥
तिलकल्काज्यमधुभिर्यथास्वं भेषजेन च ॥२६॥ नमक, वच, नींबके पत्ते, घृत इन्होंकरके धूपित करे, पीछे तिलोंका कल्क, घृत, शहद इन्हों करके यथायोग् ॥ २६ ॥
दिग्धां वति ततो दद्यात्तैरेवाच्छादयेच्च तम् ॥ __ घृताक्तैः सक्तुभिश्चोर्द्धं घनां कवलिकां ततः ॥२७॥
लेपित करी रूईआदिकी बत्तीको व्रणके भीतर प्रवेश कर, पीछे तिन पूर्वोक्त द्रव्योंकरके तिस व्रणको आच्छादित करै, फिर घृतकरके संयुक्त और जवोंके सतुओंसे बनी हुई और करडी कवलिका अर्थात् पुलटिसको तिस व्रणके ऊपर ॥ २७ ॥
निधाय युक्त्या बनीयात् पट्टेन सुसमाहितम् ॥ पार्वे सव्येऽपसव्ये वा नाधस्तान्नैव चोपरि ॥२८॥
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