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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२४२) अष्टाङ्गहृदयेघृतकरके स्वेदितकर और वस्त्रआदिकरके बाँध स्नेहविधिमें कहे उष्णोदक उपचारआदि चारको शिक्षित करे, शिरा और नसमें लगेहुये शल्यको शलाईके द्वारा शिथिल करके निकासै ॥२५॥ हृदये संस्थितं शल्यं त्रासितस्य हिमाम्बुना ॥ ततः स्थानान्तरं प्राप्तमाहरेत्तद्यथायथम् ॥ २६ ॥ हृदयमें स्थितहुये शल्यको शीतल पानीकरके त्रासित मनुष्यके स्थानांतरमें प्राप्त हुयेको जानके पीछे यथायोग्य विशिष्टरूप यंत्रोंकरके निकासै ॥ २६ ॥ यथामार्ग दुराकर्षमन्यतोऽप्येवमाहरेत् ॥ अस्थिदृष्टे नरं पद्भ्यां पीडयित्वा विनिहरेत् ॥ २७ ॥ . अन्यदेशमें स्थितहुये शल्यको दुःखकरके खंचनेके योग्य जान पीछे तिसको अपने मार्गमें प्राप्त करके निकासे और हड्डीमें जो शल्य दाखै तो मनुष्यको पैरोंसे पीडितकर शल्यको निकासै २७ इत्यशक्ये सुबलिभिः सुगृहीतस्य किङ्करैः॥ तथाप्यशक्ये वारङ्गं वक्रीकृत्य धनुर्व्यया ॥ २८॥ जो ऐसेभी शल्य नहीं निकसे तो अत्यंत बलवाले नौकरोंकरके गृहीत किये तिस मनुष्यके शल्यको कंकमुखआदि यंत्रकरके वैद्य निकासै और जो ऐसभी शल्य नहीं निकसे तो लोहआदिसे बनेहुये शल्यको शिखाके आकार कुटिलताको प्राप्तकर पीछे धनुषकी ज्या अर्थात् डोरी करके ॥ २८॥ सुवद्धं वक्रकटके बन्नीयात्सुसमाहितः॥ सुसंयतस्य पञ्चांग्या वाजिनः कशयाथ तम् ॥ २९ ॥ अच्छीतरह बाँध पीछे सावधान हुआ वैद्य पंचांगी अर्थात् घोडाके चारों पैरोंकी पछाडी और गलकी रस्सी इन्होंकरके संवृत हुये अश्वको वनकटकमें बांध पीछे तिस घोडेको चाबुक करके ॥ २९॥ ताडयदिति मूर्धानं वेगेनोन्नमयन्यथा ॥ उद्धरेच्छल्यमेवं वागखायां कल्पयेत्तरोः ॥३०॥ ताडित कर जब वेगकरके शिरको उन्न मेत करता हुआ अश्व वेगकरके शल्यको दूर करता है तैसेही इसी प्रकारकरके वक्रताको प्राप्तकर और धनुषकी डोरीकरके बांधेहुये मनुष्यको सावधान वैद्य वृक्षकी शाखाको निवायके तिसमें तिसमनुष्यको बांधै तहाँ बलवाले किंकरआदिके हाथ आदिकरके छुट हुई शाखा ऊपरको कछुक उन्नमित होकर शल्यको निकास सकै ऐसी कल्पित करनी चाहिये ॥ ३० ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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