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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(२३५) अच्छीतरह विद्ध हुये अंगमें रक्तकी धार झिरती है, और यंत्रको मुक्त हुयेपीछे नहीं झिरती है, और अल्प विंधी हुई सिरा अल्पकालतक रक्तको वहाती है तेल और चूर्णकरके: दुर्विद्ध अर्थात् अच्छीतरह नहीं वीधीहुई सिरा ॥ ३४ ॥
सशब्दमतिविद्धातु स्रवेदुःखेन धार्यते ॥
भीमू यन्त्रशथिल्यकुण्ठशस्त्रातितृप्तयः॥ ३५॥ शब्द करती हुई रक्तको झिराती है और अति वींधीहुई सिरा लोहूको अत्यंत झिराती है और कष्टकरके धारित कीजाती है और भय मूर्छा यंत्रका शिथिलपना, ठंठाशस्त्र, अतितृप्ति ॥ ३५ ॥
क्षामत्ववेगिता स्वेदा रक्तस्याऽनुतिहेतवः ॥
असम्यगने स्रवति वेलव्योषनिशानतैः ॥ ३६॥ निर्बलता, मूत्रआदिका वेग, पसीनाका अयोग ये सब रक्तको नहीं झिराने कारण कहे हैं जो बुरीतरह रक्त झिरता रहै तो बायविडंग, सुंठ, मिरच, पीपल, हलदी, तगर, ॥ ३६ ॥
सागारधूमलवणतैलैर्दिह्याच्छिरामुखम् ॥
सम्यक्प्रवृत्ते कोष्णेन तैलेन लवणेन च ॥ ३७॥ घरका धूमा, नमक, तेल इन्होंकरके शिराके मुखको लेपित करें और अच्छीतरह प्रवृत्त हुआ रक्त झिरे तो कछुक गरम तेल और नमकको मिलाके सिराके मुखको लेपित करै ॥ ३७॥
अग्रे सवति दुष्टात्रं कुसुम्भादिव पीतिका ॥
सम्यक्तुत्य स्वयं तिष्ठेच्छुद्धं तदिति नाहरेत् ॥ ३८ ॥ और दुष्टहुआ रक्त पहले झिरता है जैसे रागपीतिका मिलीहुई कुमुंभासे पहले पीतिका गिरतीहै और जो कुछ निकलकर यत्नके विना नहीं स्ववै वह शुद्ध रक्त होता है तिसको वैद्य झिरावे नहीं ३८
यन्त्रं विमुच्य मूर्छायां वीजिते व्यजनैः पुनः॥
स्रावयेन्मूर्च्छति पुनस्त्वपरेयुस्त्रयहेऽपि वा ॥ ३९ ॥ जो मूर्छा होजावे तो यंत्रको खोलके और विजनाकी पवनसे मनुष्यको अच्छीतरह आश्वासित कर फिर रक्तको निकासे और फिरभी मनुष्यको मूर्छा होजावे तो दूसरे दिन व तीसरे दिन फिर रक्तको निकासै ॥ ३९॥
वाताच् छ्यावारुणं रूक्षं वेगस्राव्यच्छफेनिलम्॥
पित्तात्पीतासितं विस्त्रमस्कंद्योष्ण्यात्सचन्द्रकम् ॥४०॥ कपिश और लालरंगवाला और रूखा और वेगसे झिरनेवाला और स्वच्छ और रागोंवाला रक्त वायुसे दुष्ट होता है, और पीला तथा स्याह और स्कंदपनेसे रहित और गरमाईसे चंद्रकाओंवाला और कच्चे गंधवाला रक्त पित्तसे दूषित होता है ॥ ४० ॥
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