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( २३४ )
अष्टाङ्गहृदये
विध्येद्धस्तशिरा बाहावनाकुञ्चितकूर्परे ॥ बद्धा सुखोपविष्टस्य मुष्टिमंगुष्ठगर्भिणीम् ॥ २८ ॥
कोहनीको फैलाकर बाहुमें हाथकी सिराको वीं परंतु सुखपूर्वक बैठे हुये मनुष्यके अंगूठा करके गर्भित मुष्टिको बंधवाके ॥ २८ ॥
ऊर्ध्वं वेध्यप्रदेशाच्च पट्टिकां चतुरङ्गुले ॥
विध्येदालम्बमानस्य बाहुभ्यां पार्श्वयोः शिराम् ॥ २९ ॥
और वेध्यस्थानके ऊपर चार चार अंगुल परिमाण स्थानमें पट्टीको बांधकर बाहुओंकरके आलं-बमान मनुष्यके पसलियोंकी सिराको बींधै ॥ २९ ॥
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प्रहृष्टे मेहने जंघाशिरां जानुन्यकुञ्चिते ॥
पादे तु सुस्थितेऽधस्ताजानुसन्धेर्निपीडिते ॥ ३० ॥
स्तब्धरूप लिंग होव तो लिंगके आश्रित हुई सिराको बींधै स्पष्टरूप गोडों की स्थिति हो तो जंघाकी सिराको वधै, सुखपूर्वक पृथ्वी आदिमें स्थित पैर होवे तो पैरकी सिराको वाधै, और गोडों के नीचे ॥ ३० ॥
गाढं कराभ्यामागुल्फं चरणे तस्य चोपरि ॥
द्वितीये कुञ्चिते किञ्चिदारूडे हस्तवत्ततः ॥ ३१ ॥
टकनांतक हाथोंकरके अत्यंत पीडित किये पैर के ऊपर दूसरा पैर कछुक संकुचित होवे तथा कछुक आरूढ होवे तव वेध्यस्थानसे ऊपर चार चार अंगुल में हाथको सिराको वधनकी तरह पट्टी बांधकर ॥ ३१ ॥
वद्धा विध्येच्छ्रािमित्थमनुक्तेष्वपि कल्पयेत् ॥ तेषु तेषु प्रदेशेषु तत्तद्यन्त्रमुपायवित् ॥ ३२ ॥
सिराको वधै, ऐसेही तिस तिस उपायको जाननेवाला वैद्य नहीं कहहुये तिन तिन शरीर के अंगोंमें इसी तरह अपनी बुद्धिकरके यथायोग्य तिस तिस यंत्रको कल्पित करे ॥ ३२ ॥ मांसले निक्षिपेदेशे व्रीह्यास्यं त्रीहिमात्रकम् ॥ यवार्द्धमस्थनामुपरि शिरां विध्यन्कुठारिकाम् ॥ ३३ ॥
अत्यंत मांसवाले शरीरके अंगमें व्रीहिमुखशस्त्रको त्रीहिमात्रही प्रवेश करै, और सिराको ता हुआ वैद्य हड्डियों के ऊपर आधे यवके समान कुठारिकाको प्राप्तकरै ॥ ३३ ॥ सम्यग्विद्धेस्रवेद्वारां यन्त्रे मुक्ते तु न स्रवेत् ॥ अल्पकालं वहत्यल्पं दुर्विद्धा तैलचूर्णनैः ॥ ३४ ॥
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