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अष्टाङ्गहृदये
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गृध्रस्यां जानुनोऽधस्तादूर्ध्वं वा चतुरंगुले ॥ इन्द्रबस्तेरधोऽपच्यां द्वयंगुले चतुरंगुले ॥ १५ ॥
गृध्रसीरोगमें दोनों गोडोंके चार अंगुल नीचे अथवा चार अंगुल ऊपर शिराको बींधे, अपचीरोगमें इंद्रबस्ति अर्थात् जांघों के अंतरमें जो अंग है तिसके नीचे दो अंगुलमें स्थितहुई शिराको बींधै ॥ १५ ॥
ऊर्ध्वगुल्फस्य सक्थ्य तथा क्रोष्टुकशीर्षके ॥ पाददाहे खुडे हर्षे विपाद्यां वातकण्टके ॥ १६ ॥
सक्थिस्थानमें पीडा होवै तो टकनोंके ऊपर चार अंगुल में स्थितहुई शिराको बींधे और कोष्टक शिररोग में भी पूर्वोक्त शिराको वींधे, और पाददाह, खुडवात, हर्षरोग, विपादीरोग, वातकंटक ॥ १६ ॥ चिप्ये च यंगुले विध्येदुपार क्षिप्रमर्मणः
स्यामिव विश्वाच्यां यथोक्तानामदर्शने ॥ १७ ॥
चिप्यरोगमें क्षिप्रमर्मके ऊपर दो अंगुलं स्थितहुई शिराको बींधे और विश्वाची वातमें दोनों गोडों के नीचे अथवा ऊपर चार अंगुल में स्थितहुई शिराको बींधे और यथोक्त शिराओं का दर्शन नहीं होवे तो ॥ १७ ॥
मर्महीने यथासन्ने देशेऽन्यां व्यधयेच्छिराम् ॥ अथ स्निग्धतनुः सज्जसर्वोपकरणो बली ॥ १८ ॥
मर्मकरके वर्जित और यथोक्त शिराके समीपदेशमें स्थितहुई शिराको वाँधे पीछे स्निग्ध शरीर चाला और सावधान और सब सामग्रियों को ग्रहण किये हुये और पुष्ट ॥ १८ ॥
कृतस्वस्त्ययनः स्निग्धरसान्नप्रतिभोजितः ॥ अग्नितापातपस्विन्नो जानुच्चासनसंस्थितः ॥ १९ ॥
और स्वस्त्ययन अर्थात् बलि मंगलहोम आदिको किये हुये और स्निग्ध रस करके युक्त अन्नका भोजनको कियेहुये अग्निकी गरमाई और घामकरके स्वेदित और गोडों प्रमाण ऊंचे आसन! स्थितहुआ || १९ ॥
मृदुपट्टात्तकेशान्तो जानुस्थापितकूर्परः ॥
मुष्टिभ्यां वस्त्रगर्भाभ्यां मन्ये गाढं निपीडयेत् ॥ २० ॥
और कोमल बस्त्रकरके बँधे हुये, केशों को अंत से संयुक्त और गोडेपै स्थापित कुहनीवाला वस्त्रकरके गर्भित मुष्टियों करके कंधोंको अतिशयकर के पीडित करता हुआ ॥ २० ॥ दन्तप्रपीडनोकासगण्डाध्मानानि चाचरेत् ॥
पृष्ठतो यन्त्रयेचैनं वस्त्रमावेष्टयन्नरः ॥ २१ ॥
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