________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (२२९) न गाढघनतिभिर्न पदे पदमाचरेत् ॥
प्रच्छाननैकदेशस्थं ग्रन्थितं जलजन्मभिः॥५३॥ और गाढ घन तिरछे ऐसे पदोंकरके नहीं और पदमें पदको आचारत नहीं करै और एक देशमें स्थित हुये रक्तको पछनेकरके निकासै और ग्रंथि अर्बुदआदिरोगोंमें रक्तको जोखोंकरके निकासै ॥ ५३॥
हरेच्छृङ्गादिभिः सुप्तमसृग्व्यापि शिराव्यधैः ॥
प्रच्छानं पिण्डिते वा स्यादवगाढे जलौकसः॥५४॥ चेतनारहित स्थानमें स्थित रक्तको शींगीआदिकरके निकासे सब शरीरमें व्याप्त हुये रक्तको शिराव्यध अर्थात् फस्तके खोलनेकरके निकासे अथवा पिंडीहुए रक्तमें पछनाको प्रयुक्त करे, और अवगाढरूप रक्तमें जोखोंको प्रयुक्त करै ॥ ५४॥
वस्थेऽलाबुघटीशृङ्गं शिरैव व्यापके सृजि ॥
वातादिधाम वा शृङ्गजलौकोलाबुभिः क्रमात् ॥ ५५ ॥ त्वचागतरक्तमें तूंनी वटी शीगीको प्रयुक्त करै, और सकलशरीरमें व्यापित रक्तमें फस्तके खोलनेके सिवाय अन्य उपाय नहीं, वातस्थानमें स्थितहुये रक्तको शीगीकरके और पित्तस्थानमें स्थितहुये रक्तको जोखोंकरके और कफस्थानमें स्थितहुये रक्तको तूंबीकरके निकासै ॥ ५५ ॥
स्त्रुतासृजः प्रदेहायैः शीतैः स्याद्वायुकोपतः॥
सतोदकण्डूशोफस्तं सर्पिषोष्णेन सेचयेत् ॥ ५६ ॥ रक्तको निकासेहुये मनुष्यके शीतल लेपोंकरके वायुके कोपसे चमका और खजि सहित शोजा उपजै तो तिस शोजेको गर्म किये घृतसे सेचित करै ॥ १६ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां
सूत्रस्थाने षड्विंशोऽध्यायः॥ २६ ॥
सप्तविंशोऽध्यायः।
-DOETRYअथातः शिराव्यधविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर शिराव्यधविधिनामके अध्यायको व्याख्यान करेंगे। मधुरं लवणं किंचिदशीतोष्णमसंहतम् ॥ पद्मेन्द्रगोपहेमाविशशलोहितलोहितम् ॥१॥
For Private and Personal Use Only