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(२२८)
अष्टाङ्गहृदये
पीछे मट्टी और पानीसे भरेहुये घटमें अन्य अन्य जगह वे जोंक स्थापित करनी चाहिये, और लालआदि क्लिन्नताके नाशके अर्थ और जो एकघटमें तिन जोखोंका मिलाप कियाजावे तो वे जोख विषवाली होजाती हैं ( गुल्म, बवासीर, विद्रधी, कुष्ठ, वातरक्त, गलके रोग, नेत्रपीडा, विष, विसर्प इन रोगोंको जोक शांत करतीहै ) ॥ ४६॥
अशुद्धौ स्रावयेदंशान्हरिद्रागुडमाक्षिकैः ॥
शतधौताज्यपिचवस्ततो लेपाश्च शीतलाः॥४७॥ जो अशुद्ध चिह्नोंकरके अनुमित रक्त निकसै तो जोखके दंशोंको हलदी गुड शहदसे स्रावित करे पीछे सो १०० वार धोए हुए घृतसे संयुक्त रूईके फोहेको प्रयुक्त करै, और मुलहटी चंदन खस आदि शीतल लेप करै ॥ ४७ ॥
दुष्टरक्तापगमनात्सद्योरोगरुजां शमः॥
अशुद्धं चलितं स्थानास्थितं रक्तं व्रणाशये ॥४८॥ दुष्टरक्तके निकसनेसे शीघ्रही रोग और पीडाकी शांति होती है और अशुद्धरक्त रक्ताशयसे चलके व्रणके आशयमें स्थित होताहै ॥ ४८ ॥
अम्लीभवेत्पर्युषितं तस्मात्तस्त्रावयेत्पुनः॥
युद्ध्यान्नालाबुघटिका रक्ते पित्तेन दूषिते ।। ४९ ॥ तब अम्लीभूत तथा पर्युषित अर्थात् बासी होजाता है तिसकारणसे रक्तको फिर स्रावित करे, और पित्तकरके दूषित रक्तमें तूम्बी और घटिकाशस्त्रको प्रयुक्त नहीं करै इससे पित्त रक्तकी वृद्धि होगी ॥ ४९ ॥
तासामनलसंयोगाद्युञ्ज्याच्च कफवायुना॥
कफेन दुष्टं रुधिरं न शृङ्गेण विनिर्हरेत् ॥ ५०॥ क्योंकि तिन शस्त्रोंमें अग्निका संयोग है और कफ, वायुसे दूषितरक्तमें घटिकाशस्त्रको प्रयुक्त करै, कफकरके दुष्ट हुये रुधिरको शीगीकरके नहीं निकासै ॥ ५० ॥
स्कन्नत्वाद्वातपित्ताभ्यां दुष्टं शृङ्गेण निर्हरेत् ॥
गात्रं बद्धोपरि दृढं रज्ज्वा पट्टेन वा समम्॥ ५१ ॥ क्योंक शीगीको अग्निके संयोगका अभाववाली होनेसे वात और पित्तकरके दुष्ट रुधिरको शीगांकरके निकासै और रक्तकरके व वस्त्रकरके दृढरूप अङ्गको बांधके ॥ ५१ ॥
स्नायुसन्ध्यस्थिमर्माणि त्यजन्प्रच्छानमाचरेत् ॥
अधोदेशप्रविसृतैः पदैरुपरिगामिभिः॥५२॥ और नस संधि हड्डी मर्म इन्होंको त्यागताहुआ वैद्य प्रच्छान अर्थात् पछनेको आचरण करै कि अधोदेशसे प्रसृत हुये और ऊपरको गमन करनेवाले पदोंकरके ॥ ५२ ॥
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