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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
नतोऽग्रे शंकुना तुल्यो गर्भशंकुरिति स्मृतः ॥ अष्टागुलायतस्तेन मूढगर्भं हरेत्स्त्रियाः ॥ ३२ ॥
( २१९ )
अग्रभागमें पक्षके समान नम्रहुआ और आठ अंगुलकी लंबाईसे संयुक्त ऐसा गर्भशंकुयंत्र कहा है इस करके वैद्य स्त्रीके मूढगर्भको निकाश सकता है ॥ ३२ ॥ अमर्याहरणे सर्पफणावद्वक्रमग्रतः ॥
शरपुंखमुखं दन्तपातनं चतुरंगुलम् ॥ ३३ ॥
पथरी के निकाशनेमें अग्रभागसे सांपके फणके समान मुखवाला यंत्र बनाना और बाजके मुखके समान मुखवाला और चार अंगुलप्रमाणसे संयुक्त यंत्र दंतपातन अर्थात् चलायमान हुये दंतों को उखाड़ सकता है ॥ ३३ ॥
कार्पासविहितोष्णीषाः शलाकाः षट् प्रमार्जने ॥ पायावासन्नदूरार्थे द्वे दशद्वादशांगुले ॥ ३४ ॥
रूईकरके वेष्टित शिरवाली छः शलाकायंत्र मार्जनकर्मके अर्थ बनाने गुदामें निकट और दूरके. अर्थ दश अंगुल और बारह अंगुलकी लंबाईसे संयुक्त दो शलाका बनानी || || ३४ ॥ द्वेष सप्तांगुले घाणे द्वे कर्णेऽष्टनवांगुले ॥
कर्णशोधनमश्वत्थपत्रप्रान्त खुवाननम् ॥ ३५ ॥
नासिकामें निकट और दूरके अर्थ क्रमसे छः और सात अंगुलकी लंबाईसे संयुक्त दो शलाका बनानी और कानमें निकट और दूरके अर्थ क्रमसे नव और आठ अंगुलकी लंबाईसे संयुक्त दो और दो शलाका बनानी और पीपलवृक्षके पत्ताके समान अग्रभाग से संयुक्त और सुकू अर्थात् हवन करनेके के समान मुखवाला कर्णशोधन यंत्र बनाना ॥ ३५ ॥
शलाकाजाम्बवोष्ठानां क्षारेऽग्नौ च पृथक् त्रयम् ॥
युयात् स्थूलाणुदीर्घाणां शलाकामन्त्रवर्त्मनि ॥ ३६ ॥
स्थूल, सूक्ष्म. दीर्घ ऐसे शालाका और जांबवोष्ठयंत्रको खारके पातनमें और अग्निदाह करण में प्रयुक्त करै और अंत्रवृद्धिरोगमें शलाका अर्थात् शलाईको प्रयुक्त करै ॥ ३६ ॥ मध्योर्ध्ववृत्तदण्डां च मूले चार्चेन्दुसन्निभाम् ॥
कोलास्थिदलतुल्यास्या नासार्शोऽर्बुददाहकृत् ॥ ३७ ॥
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परंतु मध्यसे ऊपरको गोल है दंड जिसका और मूलभाग में अर्धचंद्रमा के समान आकारवाली शलाई बनानी और बेरकी गुठली के खंडके समान मुखसें संयुक्त शलाई नासिका के अर्शमें ओर नासिका के अर्बुदमें दाहको करती है ॥ २७ ॥