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(१८६)
अष्टाङ्गहृदयेत्रिभ्यः परं बस्तिमतो नेच्छन्त्यन्ये चिकित्सकाः॥
न हि दोषश्चतुर्थोऽस्ति पुनर्दीयेत यं प्रति ॥ १० ॥ इसी कारणासे तीन निरूहबस्तियोंके उपरांत बस्तियोंकी इच्छा अन्य वैद्य नहीं करते हैं क्योंकि " तीन दोषोंसे अन्य कोई चौथा दोष नहीं है, जिसको जीतनके अर्थ चौथी बस्ति दीजावै ॥६० ॥
उत्क्लेशनं शुद्धिकरं दोषाणां शमनं क्रमात् ॥
त्रिधैवं कल्पयेइस्तिमित्यन्येऽपि प्रचक्षते ॥६१ ॥ उक्लेशरूप और शुद्धिको करनेवाली और दोषों को शांत करनेवाली ऐसे तीन प्रकारकी बस्ति है ऐसे अन्य वैद्य कहते हैं ॥ ६१ ॥
दोषौषधादिवलतः सर्वमेतत्प्रमाणयेत् ॥
सम्यक् निरूढलिङ्गं तु नासम्भाव्य निवर्तयेत् ॥ ६२ ॥ दोष और औषधआदिके बलसे यह सब प्रमाण करनेके योग्य है और अच्छीतरह निरूहबस्तिक लक्षणवाले मनुष्यके अर्थ निरूहबस्तिका देना उचित है ।। ६२ ॥
प्राक्नेह एकः पञ्चान्ते द्वादशास्थापनानि च ॥
सान्वासनानि कर्मैवं बस्तयस्त्रिंशदीरिताः॥६३ ॥ पहले एक स्नेहबस्ति है और अंतमें पांच स्नेहबस्तियां हैं और बारह निरूह बस्तियां हैं और बारह अनुवासनबस्तियां हैं ऐसे तीस तीस बस्तियां कही हैं ॥ ६३ ॥
कालः पञ्चदशैकोऽत्र प्राक् स्नेहान्ते त्रयस्तथा ॥
षट्पञ्चबस्त्यन्तारता योगोऽष्टौ बस्तयोऽत्र तु ॥६४ ॥ पंद्रह बस्तियां काल कहाती हैं अर्थात् एक पहला स्नेह और अंतमें तीन स्नेह और छः स्नेह और पांच बस्तियों करके अंतरित पांच स्नेह ऐसे १५ हैं और योगसंज्ञक बस्तियां आठ हैं ॥६४॥
त्रयो निरूहाः स्नेहाश्च स्नेहावाद्यन्तयोरुभौ ॥
स्नेहबस्ति निरूहं वा नैकमेवातिशीलयेत् ॥६५॥ अर्थात् तीन निरूह और तीन स्नेह अर्थात् अनुवासन और आदिकी तथा अंतकी स्नेहबस्ति ऐसे आठ हैं और एक स्नेहबस्तिको अथवा एक निरूहबस्तिको अतिशयकरके न सेवै ॥ ६५ ॥
उत्क्लेशाग्निवधौ स्नेहान्निरूहान्मरुतो भयम् ॥
तस्मान्निरूढः स्नेह्यः स्यान्निरूह्यश्चानुवासितः॥६६॥ क्योंकि अतिसेवित करी स्नेहबस्तिसे उत्क्लेश और मंदाग्नि रोग उपजता है और अतितेवित करी
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