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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१५८) अष्टाङ्गहृदयेतेनोद्वारविशुद्धिः स्यात्ततश्च लघुता रुचिः॥ भोज्योऽन्नं मात्रया पास्यन् श्वः पिबन्पीतवानपि ॥ २४॥ तिससे डकारोंकी शुद्धि, हलकापन और रुचि उपजती है और अगले दिनमें स्नेहपानकी इच्छा करनेवाला अथवा तिसीदिनमें स्नेहका पान करनेवाला अथवा स्नेहका पान कियेहुये मनुष्योंको मात्राके अनुसार अन्नका भोजन करवावै ॥ २४ ॥ द्रयोष्णमनभिष्यन्दि नातिस्निग्धमसङ्करम्॥ उष्णोदकोपचारी स्याद् ब्रह्मचारी क्षपाशयः ॥२५॥ परंतु वह अन्न द्रवरूप और गरम और कफको नहीं करनेवाला और अति स्निग्धपनेसे रहित और मिश्रपनेसे रहित होना चहिये और उष्णपानीको वर्तता रहै और ब्रह्मचर्यको धारै दिनमें शयन न करे और रात्रिमें शयन करै ॥ २५ ॥ न वेगरोधी व्यायामक्रोधशोकहिमातपान् ॥ प्रवातयानयानाध्वभाष्याभ्यासनसंस्थितिः ॥ २६॥ वेगको न रोके और कसरत, क्रोध, शोक, शीत, घाम, प्रवात, असवारी, मार्गगमन, भाषण, अभ्यासन, संस्थिति ॥ २६॥ नीचात्युच्चोपधानाहः स्वप्नधूमरजांसि च ॥ यान्यहानि पिवेत्तानि तावन्त्यन्यान्यपि त्यजेत् ॥ २७॥ नीचा आसन, ऊंचा आसन, दिनका शयन, धूमा, धूली इन सबोंको जितनेदिनोंतक स्नेहका पान करै उतने ही दिन और आगेतक यह सब त्यागता रहै ॥ २७ ॥ सर्वकर्मस्वयं प्रायो व्याधिक्षीणेषु च क्रमः॥ उपचारस्तु शमने कार्यः स्नेहे विरिक्तवत् ॥ २८॥ और रोगोंको क्षीणकरनेवाले.सब कर्म अर्थात् वमन विरेचनआदि कर्मोमें यही विधि करना उचित है और रोगोंको शमन करनेवाले स्नेहको उपयुक्त करै, तो भोजनआदिकी विधि विरिक्त अर्थात् विरेचनादिवाले मनुष्यकी समान करै ॥ २८ ॥ व्यहमच्छं मृदौ कोष्ठे क्रूरे सप्तदिनं पिवेत् ॥ सम्यक् स्निग्धोऽथवा यावदतः सात्मी भवेत्परम् ॥ २९॥ कोमलकोष्टमें स्वच्छ स्नेहको तीन दिनोंतक पीवै और क्रूरकोष्ठमें स्वच्छ स्नेहको सात दिनोंतक पीवै और जो सम्यक् स्निग्धके लक्षण नहीं मिले तो जबतक सम्यक् बिग्थके लक्षण मिलैं तबतक पीता रहै और सम्यक् निग्धहोनेके पीछे भी पान किया स्नेह सात्मीभूत होजाता है For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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