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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१५७) कल्पयेदीक्ष्य दोषादीन् प्रागेव तु ह्रसीयसीम्॥
ह्यस्तने जीर्ण एवान्ने स्नेहोऽच्छः शुद्धये बहुः॥१८॥ सो कुशल वैद्य दोपआदिकोंको देखकर पहलेही अतिहस्त्र मात्राको अर्पण करवावै और पहले दिनमें भोजन किये अन्नको जीर्ण होनेपै उत्तम मात्रासे संयुक्त और स्वच्छ ऐसे स्नेहका पीना उचित है ॥ १८ ॥
शमनः क्षुद्वतोऽनन्नो मध्यमात्रश्च शस्यते ॥
बृंहणो रसमद्याद्यैः सभक्तोऽल्पो हितः स च ॥ १९ ॥ भूख लगनेवाले मनुष्यके अन्नसे रहित और मध्य मात्रासे संयुक्त स्नेह शमन अर्थात् रोगोंको नाशता है और मांसका रस तथा मदिरा आदिके संग स्नेह वहणरूप होजाता है और भोजनकरके संयुक्त और अल्प मात्रासे संयुक्त स्नेह हित कहा है ॥ १९॥
बालवृद्धपिपासार्त्तस्नेहद्विण्मद्यशीलिषु॥
स्त्रीस्नेहनित्यमन्दाग्निसुखितक्लेशभीरुषु ॥२०॥ और बालक, वृद्ध, तृषासे पीडित, स्नेहका वैरी, मदिराको सेवनेवाला स्त्रियोंमें निरंतर वसने वाला और स्नेहको नित्यप्रति लेनेवाला, मंदाग्निवाला, सुखी, केशवाला डरपोक ॥ २० ॥
मृदुकोष्ठाल्पदोषेषु काले चोष्णे कृशेषु च ॥
प्राङ्मध्योत्तरभक्तोऽसावधोमध्योर्ध्वदेहजान् ॥ २१॥ कोमलकोप्टवाले, अल्पदोषोंवाले, कृश मनुष्योंको उष्णकालमें स्नेह भोजनके संग हित कहा है सो भोजनकी आदिमें उपयुक्त किया स्नेह शरीरके अधोभागगत रोगोंको नाशता है और भोजनके मध्यमें उपयुक्त किया स्नेह शरीरके मध्यभाग गतरोगोंको नाशता है और भोजनके ऊपर उपयुक्त किया स्नेह शरीरके ऊर्बभागगत रोगोंको नाशता है ॥ २१ ॥
व्याधीञ्जयेद्दलं कुर्यादङ्गानां च यथाक्रमम् ॥
वायुष्णमच्छेऽनुपिबेत्स्लेहे तत्सुखपक्तये ॥२२॥ ऐसेही क्रमसे अंगोंमें बलको करता है और उत्तम मध्यम ह्रस्व इन मात्राओंकरके उपयुक्त किये स्वच्छ स्नेहपै सुखपूर्वक पाकके अर्थ गरम पानीको पीता रहै ॥ २२ ॥ ___ आस्योपलेपशुद्धयै च तौवरारुष्करे न तु॥
जीर्णाजीर्णविशङ्कायां पुनरुष्णोदकं पिबेत् ॥ २३ ॥ स्नेहसे उपलिप्त मुखकी शुद्धिके अर्थ स्वच्छ रूप तुवर तेल और भिलावेके तेलका पान करके ऊपर गरम. पानीको नहीं पावै और जीर्ण तथा अजीर्णकी शंका होवे तो बहुत कालके पीछे फिर गरम पानीको पीवै ।। २३॥
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