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अष्टाङ्गहृदये
षोडशोऽध्यायः ।
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अथातः स्नेहविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर स्नेहविधिनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे ।
गुरुशीतसर स्निग्धमन्दसूक्ष्ममृदुद्रवम् ॥ औषधं स्नेहनं प्रायो विपरीतं विरूक्षणम् ॥ १ ॥
गुरु-शति-सर-स्निग्ध-मंद - सूक्ष्म - मृदु - द्रव - औषध विशेष करके स्नेहन है, और स्नेह से विपरीत औषध रूक्षण कहाती है ॥ १ ॥
सर्पिर्मज्जा वसा तैलं स्नेहेषु प्रवरं मतम् ॥ तत्रापि चोत्तमं सर्पिः संस्कारस्यानुवर्त्तनात् ॥ २ ॥
घृत - मज्जा - वसा - तेल- ये चारों स्नेहमें उत्तम माने हैं और मधुरपन आदि हेतुसे इनों में भी वृत उत्तम है ॥ २ ॥
पित्तघ्नास्ते यथापूर्वमितरना यथोत्तरम् ॥
घृतात्तैलं गुरु वसा तैलान्मज्जा ततोऽपि च ॥ ३ ॥
और ये चारों स्नेहोंमेंसे वसा - मज्जा - घृत- ये तीनों स्नेह पूर्व पूर्व क्रमसे पित्तको नाशते हैं अर्थात् सा पित्तको नाशती है, और मज्जा पित्तको अति नाशती है और वृत पित्तको बहुत अत्यंत नाशता है और उत्तरोत्तर क्रमसे तीनों स्नेह बात और कफको नाशते हैं अर्थात् मज्जा वात कफको नाशता है और वसा वात कफको अत्यंत नाशता है और तेल बात कफको बहुत अत्यंत नाशता है और वृतसे तेल अति भारी है और तेलसे बसा अति भारी है और वसा से मज्जा अत्यंत भारी है ॥ ३ ॥
द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिस्तैर्यमकस्त्रिवृतो महान् ॥ स्वेद्यसंशोध्यमद्यस्त्रीव्यायामासक्तचिन्तकाः ॥ ४ ॥
दो स्नेह के मिलापको यमक कहते हैं और तीन स्नेहों के मिलापको त्रिवृत् कहते हैं और चार स्नेहों के मिलापको महान् कहते हैं और स्वेदन कर्मके योग्य शोधन करनेके योग्य और मदिरास्त्री--- कसरत - इन्होंमें आसक्त और चिताबाला ॥ ४ ॥
वृद्धवालावलकुशा रूक्षाः क्षीणास्त्ररेतसः ॥ वातार्त्तस्यन्दतिमिरदारुणप्रतिबोधिनः ॥ ५ ॥
और वृद्ध–बालक-बलहीन - कृश - रूक्ष - क्षीण रक्तवाले - क्षीणवीर्यवाले-वातसे पीडित अभिस्पंदरोगी - तिमिररोगी- कृच्छ्रोन्मीलनरोगी - ये सब मनुष्य स्नेहकर्मके योग्य हैं ॥ ९ ॥
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