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मूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१५३) शुक्तिव्याघनखो महाह्वमगुरुः श्रीवासकं कुङ्कुमम्
चण्डागुग्गुलुदेवधूपखपुराः पुन्नागनागाह्वयम् ॥४३॥ दोनों इलायची-शिलारस-कूठ-गंधप्रियंगु-जटामांसी-नेत्रवाला-रोहिषतृण-सफेद लज्जावंती-ग्रंथिपर्णी-दालचीनी-तगर-तैलपित्तक-बोल-नख-समुद्रझाग-देवदारअगर-श्रीवेष्टकधूप केसर-कोपना-गूगल-देवधूप-सुपारी-रक्तकेसर-नागकेसर ॥ ४३ ॥
एलादिको वातकफो विषञ्च विनियच्छति ॥
वर्णप्रसादनः कण्डूपिटिकाकोठनाशनः ॥४४॥ यह एलादिगण वात-कफ-विष-खाज-फुनसी-कोठको नाशता है और वर्णको स्वच्छ करता है ॥ ४४॥
श्यामा दन्ती द्रवन्ती क्रमुककुटरणी शंखिनी चर्मसाह्वा स्वर्णक्षीरी गवाक्षी शिखरिरजनकच्छिन्नरोहाकरञ्जाः॥ बस्तान्त्री व्याधिघातो बहलबहुरसस्तीक्ष्णवृक्षात्फलानि श्यामाद्यो हन्ति गुल्मं विषमरुचिकफो हृद्रुजं मूत्रकृच्छ्रम् ॥४५॥ निशोत-जमालगोटाकीजड-मूषाकर्णी-पठानीलोध-सफेदनिशोत--शंखिनी-सातला वा ब्राह्मी चोखं-~-गडुंभा-चिरचिटा-कवीला-गिलोय-करंजुवा-वृपगंधा-अमलतास-ईख-पीलुफल--यह श्यामादिगण गुल्म-विषमज्वर-अरुचि-कफ-हृद्रोग-मूत्रकृच्छ इन्होंको नाशता है ॥ ४५ ॥
त्रयस्त्रिंशदिति प्रोक्ता वर्गास्तेषु त्वलाभतः॥
युद्ध्यात्तद्विधमन्यच्च द्रव्यं जह्यादयोगिकम् ॥ ४६ ॥ एते वर्गा दोषदृष्याद्यपेक्ष्य कल्कक्काथस्नेहलेहादियुक्ताः॥ पानेनस्येऽन्वासनेऽन्तर्वहिर्वा लेपाभ्यंगैनन्ति रोगान्सुकृच्छ्रान् ॥४७॥
यह तेतीस (३३ ) वर्ग कहे हैं इन्होंमें जो जो औषध नहीं मिलै तिस तिसके समान अन्य औषधको मिलाना और जो जो इन्होंमें योगके अयोग्य औषध मालूम देवे तिस तिसको वैद्य त्याग ॥ ४६ ॥ दोष-दूष्य-अवस्था-बल आदिकी अपेक्षा करके पीछे कल्क-स्नेह-लेह-नस्य-पान अन्वासन-लेप-अभ्यंग-आदियोंके द्वारा प्रयुक्तकरे पूर्वोक्त तेतीस वर्गोंके औषध कष्टसाध्य रोगोंको नाशते हैं ॥ ४७॥ इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताष्टांगहृदयसंहिताभाषा कायां
सूत्रस्थाने पंचदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥ |
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