________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(१२७) मिथ्यायोगस्तु निर्दिष्टो विपरीतस्वलक्षणः ॥
कायवाञ्चित्तभेदेन कर्मापि विभजेत् त्रिधा ॥ ३९॥ विपरीत हैं अपने लक्षण जिसमें तिसको मिथ्याकाल कहते हैं और काय अर्थात् शरीर-वाणी चित्त-इन भेदोंकरके कर्मकोभी तीनप्रकारसे विभागित किया है ॥ ३९ ॥
कायादिकर्मणा हीना प्रवृत्ति-नसंज्ञिका ॥
अतियोगोऽतिवृत्तिस्तु वेगोदीरणधारणम् ॥ ४० ॥ कायकर्मी और वाणीकर्मकी और चित्तकर्मकी जो हीन प्रवृत्ति है तिसको हीनसंज्ञक योग कहते हैं, और इनतीनोंकी जो अतिप्रवृत्ति है तिसको अतियोग कहते है और वेगोंकी वृद्धिको धारण करना ॥ ४०॥
विषमाङ्गक्रियारम्भः पतनस्खलनादिकम् ॥
भाषणं सामिभुक्तस्य रागद्वेषभयादि च ॥४१॥ विषम अंगकी क्रियाका आरंभ-विषमपतन-विषमस्खलन-आदि कायिककर्म कहाता हैं. लिसकर्मकी जो वृत्ति है वह कायकर्मका मिथ्यायोग है और आधा भोजन करनेवाले मनुष्यकी जो भाषणरूप प्रवृत्ति है वह वाणीकर्मका मिथ्यायोग है और राग-द्वेष-भय इनआदि जो मानसकर्म है तिस कर्मकी जो प्रवृत्ति है तिसको चित्तकर्मका मिथ्यायोग कहते हैं ॥ ४१ ॥
कर्म प्राणातिपातादि दशधा यच्च निन्दितम् ॥
मिथ्यायोगः समस्तोऽसाविह चामुत्र वा कृतम् ॥४२॥ हिंसा-चोरी आदि दशप्रकारके जो निंदित कर्म पहले कहचुके हैं तिन्होंका करना इसलोकमें र परलोकमें मिथ्यायोग कहाता है ॥ ४२ ॥ ।
निदानमेतदोषाणां कपितास्तेन नैकधा॥
कुर्वन्ति विविधान् व्याधीशाखाकोष्ठास्थिसन्धिषु ॥४३॥ ऐसे दोषोंका यह निदान है, तिस निदानकरके कुपित हुये दोष शाखा--कोष्ठ-अस्थिसंधिइन्होंमें अनेकप्रकारके रोगोंको करते हैं ।। ४३ ॥
शाखा रक्तादयस्त्वक् च बाह्यरोगायनं हि तत् ॥
तदाश्रया मषव्यङ्गगण्डालज्यर्बुदादयः॥४४॥ शाखा अर्थात् रक्तआदि ६ धातु और त्वचा ये बाह्य रोगोंके स्थान हैं तिन्होंमें मश-व्यंग गंड-अलजी-अर्बुद ।। ४४ ॥
बहिर्भागाश्च दुर्नामगुल्मशोफादयो गदाः ॥ अन्तः कोष्टो महास्रोतआमपक्वाशयाश्रयः॥४५॥
For Private and Personal Use Only