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(१२६)
अष्टाङ्गहृदयेविकारजातं विविधं त्रीन् गुणान्नातिवर्तते ॥ तथा स्वधातुवैषम्यनिमित्तमपि सर्वदा॥ ३३ ॥ विकारजातं त्रीन् दोषांस्तांष कोपे तु कारणम् ॥
अर्धे रसात्म्यैः संयोगः कालः कर्म च दुष्कृतम् ॥३४॥ अथवा जैसे अनेकप्रकारवाला यह संपूर्ण विकारजात रजोगुणआदि तीन गुणोंको नहीं उल्लंधित करता है तैसे दोष-धातु-मलका वैषम्य अर्थात् अन्यथाभावके कारणसे उत्पन्नहुआ विकार तीन दोषोंको उल्लंधित नहीं करता है और तिन वातआदिके कोपमें कारण कहते हैं, अनुचित 'पदार्थोके साथ संयोग-अनुचितकाल-दुष्कृतकर्म यह तीन प्रकारका कारण है ।। ३३ ॥ ३४ ॥
हीनातिमिथ्यायोगेन भिद्यते तत्पुनस्त्रिधा॥
हीनोऽर्थेनेन्द्रियस्याल्पः संयोगः स्वेन नैव वा ॥ ३५॥ फिरभी ये तीनों हीन-अति-मिथ्या-इन तीन तीन भेदोंकरके भेदित किये जाते हैं; अर्थ अर्थात् शब्दआदिकरके कर्णआदि इंद्रियका जो अल्पसंयोग है तिसको हीन योग कहते हैं, अथवा सर्वप्रकारसे जो शब्दआदिकरके संयोग नहीं है तिसको हीन योग कहते हैं ॥ ३५ ॥
अतियोगोऽतिसंसर्गः सूक्ष्मभासुरभैरवम् ॥
अत्यासन्नातिदूरस्थं विप्रियं विकृतादि च ॥३६॥ तिस इंद्रियका अपने अर्थके साथ जो अतिसंसर्ग है तिसको अतियोग कहते हैं और जो सूक्ष्म-चमक-भैरव-अतिआसन्न स्थित-अतिदुरस्थित-विप्रिय-विकृत-आदि ॥ ३६ ॥
यदक्ष्णा वीक्ष्यते रूपं मिथ्यायोगः स दारुणः॥
एवमत्युच्चपूत्यादीनिन्द्रियार्थान् यथायथम् ॥ ३७॥ रूप जो नेत्रकरके देखा जाता है तिसको मिथ्यारूप कहते हैं, यह दारुण है, ऐसेही अतिउच्च-प्रतिआदि इंद्रियार्थीको भी यथायोग्य जानना, जब क्रूर शब्द सुनाजाय जो अपनेको अनिष्ट हो वह श्रवणेन्द्रियका मिथ्या प्रयोग है; दुर्गधि पानेसे नासिका इंन्द्रियका शीत उष्ण स्नान अनु लेपन स्पर्शेन्द्रियसे पथ्य द्रव्यके विनष्ट होनेसे जो रस जिह्वासे ग्रहण कियाजाय वह रसनेन्द्रियका अपने रसके अर्थसे मिथ्या प्रयोग है ।। ३७ ॥
विद्यात् कालस्तु शीतोष्णवर्षभेदात् त्रिधा मतः ॥
स हीनो हीनशीतादिरतियोगोऽतिलक्षणः ॥ ३८ ॥ सो वैद्य जाने। और शीत-उष्ण वर्ष-इनभेदोंकरके कालभी तीन प्रकारका मानागया है और हीन शीतआदिको हीनयागेकाल कहते हैं और अतिमात्र योगलक्षणोंवालेको अतियोगकाल कहते हैं ॥ ३८॥
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