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(९८)
अष्टाङ्गहृदयेऔर विशेष करके मधुरता संयुक्त भोजनकरे भोजनकरनेमें बहुत शीघ्रता और देर नहीं करनी चाहिये मध्यम वृत्तिसे भोजन करै शीघ्रतामें अन्नका स्वाद विदित नहीं होता विलम्बसे तृप्ति नहीं होती ॥ ३६॥
तपयित्वा पितृन्देवानतिथीन्वालकान्गुरून्॥
प्रत्यवेक्ष्य तिरश्चोऽपि प्रतिपन्नपरिग्रहान् ॥३७॥ पितर, देवता, अतिथि, बालक, गुरुको तृप्त करके और अंगीकार किये बैलआदि पशुओंके भोजनको चिन्ताकरके अर्थात् उनकी आजीविकाकी फिक्र करके ॥ ३७॥
समीक्ष्य सम्यगात्मानमनिन्दन्नब्रुवन्द्रवम् ॥
इष्टमिष्टैः सहाश्नीयाच्छुचिभक्तजनाहृतम् ॥ ३८॥ अच्छीतरह अपने आत्माको देखकर, निंदाको न करताहुआ मौन धारण करे मनुष्य द्रवरूप और वांछित और पवित्र अपने भक्तजनसे प्राप्त किया भोजन मित्रों के संग खावै ॥ ३८ ॥
भोजनं तृणकेशादिजुष्टमुष्णीकृतं पुनः ॥
शाकावरान्नभूयिष्ठमत्युष्णलवणं त्यजेत् ॥ ३९॥ तृण केश आदिसे संयुक्त दूसरीबार गरम किया हुआ, अधिक शाकोंसे संयुक्त बहुत उड दसे युक्त, अति गरम और अति नमक संयुक्त भोजनको त्यागै ॥ ३९ ॥
किलाटदधिकूचीकाक्षारशुक्ताममूलकम् ॥
कृशशुष्कवराहाविगोमत्स्यमहिषामिषम् ॥ ४०॥ किलाट-दुग्धका विकार दही-खुरचन-खार-कांजी-कचीमूली-कृश और सूखा मांस-और शूकर भेड-गाय-मछली-भैंसको मांस न खाय ॥ ४० ॥
माषनिष्पावशालूकबिसपिष्टविरूढकम् ॥
शुष्कशाकानि यवकान्फाणितं च न शीलयेत् ॥४१॥ और उडदकी पीठी-शालूक-कमलकंद-पीठी-अंकुरितअन्न-सूखे शाक-यव-फाणित इन्होंको बहुत न सेवै ॥ ४१ ॥
शीलयेच्छालिगोधूमयवषष्टिकजाङ्गलम् ॥
पथ्यामलकमृद्वीकापटोलीमुद्गशर्कराः ॥ ४२ ॥ शालिचावल-गेहूं-जव-सांठीचावल-जांगल देशका मांस-हरडै-आमला-मुनक्का--परवलमूंग-खांड ॥ ४२ ॥
घृतंदिव्योदकक्षीरक्षौद्रदाडिमसैन्धवम् ॥ मान ॐ
त्रिफलांमधुसर्पियों निशि नेत्रबलाय च ॥४३॥
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