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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९८) अष्टाङ्गहृदयेऔर विशेष करके मधुरता संयुक्त भोजनकरे भोजनकरनेमें बहुत शीघ्रता और देर नहीं करनी चाहिये मध्यम वृत्तिसे भोजन करै शीघ्रतामें अन्नका स्वाद विदित नहीं होता विलम्बसे तृप्ति नहीं होती ॥ ३६॥ तपयित्वा पितृन्देवानतिथीन्वालकान्गुरून्॥ प्रत्यवेक्ष्य तिरश्चोऽपि प्रतिपन्नपरिग्रहान् ॥३७॥ पितर, देवता, अतिथि, बालक, गुरुको तृप्त करके और अंगीकार किये बैलआदि पशुओंके भोजनको चिन्ताकरके अर्थात् उनकी आजीविकाकी फिक्र करके ॥ ३७॥ समीक्ष्य सम्यगात्मानमनिन्दन्नब्रुवन्द्रवम् ॥ इष्टमिष्टैः सहाश्नीयाच्छुचिभक्तजनाहृतम् ॥ ३८॥ अच्छीतरह अपने आत्माको देखकर, निंदाको न करताहुआ मौन धारण करे मनुष्य द्रवरूप और वांछित और पवित्र अपने भक्तजनसे प्राप्त किया भोजन मित्रों के संग खावै ॥ ३८ ॥ भोजनं तृणकेशादिजुष्टमुष्णीकृतं पुनः ॥ शाकावरान्नभूयिष्ठमत्युष्णलवणं त्यजेत् ॥ ३९॥ तृण केश आदिसे संयुक्त दूसरीबार गरम किया हुआ, अधिक शाकोंसे संयुक्त बहुत उड दसे युक्त, अति गरम और अति नमक संयुक्त भोजनको त्यागै ॥ ३९ ॥ किलाटदधिकूचीकाक्षारशुक्ताममूलकम् ॥ कृशशुष्कवराहाविगोमत्स्यमहिषामिषम् ॥ ४०॥ किलाट-दुग्धका विकार दही-खुरचन-खार-कांजी-कचीमूली-कृश और सूखा मांस-और शूकर भेड-गाय-मछली-भैंसको मांस न खाय ॥ ४० ॥ माषनिष्पावशालूकबिसपिष्टविरूढकम् ॥ शुष्कशाकानि यवकान्फाणितं च न शीलयेत् ॥४१॥ और उडदकी पीठी-शालूक-कमलकंद-पीठी-अंकुरितअन्न-सूखे शाक-यव-फाणित इन्होंको बहुत न सेवै ॥ ४१ ॥ शीलयेच्छालिगोधूमयवषष्टिकजाङ्गलम् ॥ पथ्यामलकमृद्वीकापटोलीमुद्गशर्कराः ॥ ४२ ॥ शालिचावल-गेहूं-जव-सांठीचावल-जांगल देशका मांस-हरडै-आमला-मुनक्का--परवलमूंग-खांड ॥ ४२ ॥ घृतंदिव्योदकक्षीरक्षौद्रदाडिमसैन्धवम् ॥ मान ॐ त्रिफलांमधुसर्पियों निशि नेत्रबलाय च ॥४३॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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