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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
विषूच्यामतिवृद्धायां पाष्यर्दाहः प्रशस्यते ॥ तदहश्चोपवास्यैनं विरिक्तवदुपाचरेत् ॥ १७ ॥
जो विषूची अति बढजावै तो पार्किंग अर्थात् पैरोंकी एडीके पश्चाद्भागों में लोहेकी शलाकाका दाह देना प्रशस्त है, और तिस रोगीको तिस दिनमें उपवासित कराके पीछे विरेचन लिये मनुष्यकी तरह उपचार करै ॥
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तीव्रातिरपि नाजीण पिवेच्छलन्नमौषधम् ॥
आमसन्नो नलो नालं पक्तुं दोषोपधाशनम् ॥ १८ ॥
तत्रिशूलवालाभी अजीर्णरोगी शूलनाशक औषधको नहीं पीत्रै, और विपूचिका में छर्दि और अतिसारनाशक औषधकोभी नहीं पीवै, क्योंकि आमकरके मंदीभूत हुआ अग्निदोष औषध भोजन के पकाने के अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् इस प्रकारकी औषधी गुण नहीं करती ॥ १८ ॥ निहन्यादपि चैतेषां विभ्रमः सहसातुरम् ॥
जीर्णेशने तु भैषज्यं युञ्ज्यात् स्तब्धगुरूदरे ॥ १९ ॥
दोष औषध भोजनका विभ्रम अर्थात् व्यापत्तिकालको नहीं अपेक्षित करके तिसरोगीको मार देता है, और अचल तथा भारी उदरवाले तथा जीर्णभोजनवाले मनुष्यके अर्थ औषधको प्रयुक्त करै १९ दोषशेषस्य पाकार्थमग्नेः सन्धुक्षणाय च ॥
शान्तिरामविकाराणां भवति त्वपतर्पणात् ॥ २० ॥
कारण कि शेषदोष के पाक के अर्थ और अग्निको तीव्रकरनेके अर्थ लंघन करनेसे आमसे उपजे विकारोंकी शांति होती है ॥ २० ॥
त्रिविधं त्रिविधे दोषे तत्समीक्ष्य प्रयोजयेत् ॥
तत्राल्पे लङ्घनं पथ्यं मध्ये लङ्घनपाचनम् ॥
२१ ॥
तीन प्रकार के दोषोंमें तीन प्रकारवाले लंघन आदिको प्रत्युक्त करै परंतु देश और काल आदिको देखता रहै और तिन्होंमें अल्पदोप होवै तो लंघन पथ्य है और मध्य दोषमें लंघन और पाचन पथ्य है ॥ २१ ॥
प्रभूते शोधनं तद्धि मूलादुन्मूलयेन्मलान् ॥
एवमन्यानपि व्याधीन् स्वनिदानविपर्ययात् ॥ २२ ॥
और बढे हुये दोष शोधन पथ्य है, क्योंकि यह शोधन मलोंको जडसे निकासता है ऐसेही अपने निदान और विपर्य्यय से अन्य रोगोंकी भी ॥ २२ ॥
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चिकित्से दनुबन्धे तु सति हेतुविपर्य्ययम् ॥
त्यक्त्वा यथायथं वैद्यो युञ्ज्याद्वयाधिविपर्ययम् ॥ २३