________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
मूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(७९)
स्थूलपना–मंदाग्नि – श्वास- खांखी - श्लीपद - पीनस - इन्होंको जीतता है चव्य और पीपलामूल यह
दो काली मिर्चसे कुछही गुणों में कम हैं ॥ १६३ ॥
चित्रकोऽग्निसमः पाके शोफाशः कृमिकुष्ठहा ॥
पञ्चकोलकमेतच्च मरिचेन विना स्मृतम् ॥ १६४ ॥
चीता पाकमें अग्निके समान है, और शोजा बबासीर कुष्ट कृमि इन्होंको नाशता है, और चव्यक चीता सुंठ पीपल पीपलामूल इन्होंको पंचकोल कहते हैं ॥ १६४ ॥
गुल्मलीहोदरानाहशूलघ्नं दीपनं परम् ॥
विल्वकार्यतर्कारीपाटलाटुण्टुकैर्महत् ॥ १६५ ॥
यह गुल्म- हिरोग उदररोग अफरा शूल इन्होंको नाशता है, और उत्तम दीपन है और बेलगिरी कुंभारी अरनी पाडल स्योना इन्होंको बृहत् पंचमूल कहते हैं ।। १६५ ॥ जयेत् काषायतिक्तोष्णं पञ्चमूलं कफानिलौ ॥ ह्रस्वं वृहत्यंशुमतीद्वय गोक्षुरकैः स्मृतम् ॥ १६६ ॥
यह कसैला है तिक्त है गरम है कफ और बातको नाशता है, और बडी कटेहली शालपर्णी पृश्निपर्णी गोखरूको लघु पंचमूल कहते हैं ॥ १६६ ॥
स्वादुपाकरसं नातिशीतोष्णं सर्वदोषजित् ॥ चला पुनर्नवैरण्डशूर्पपर्णीद्वयेन तु ॥ १६७ ॥ अव्यमं कफवातनं नातिपित्तकरं सरम् ॥ अभीरुवीराजीवन्तीजीवकर्षभकः स्मृतम् ॥
१६८ ॥
यह पाक में और रसमें स्वादु है न तो अतिशीतल है और न अतिगरम है, और सब दोषों को जीतता है और खरैहटी सांटी अरंड मूंगपर्णी यह मध्यम पंचमूल है, यह कफ और वातको नाशता है, और अतिपित्तको नहीं करता है, सर है शतावरी बीरा महाशतावरी जीवंती जीवक ऋषभक इन्होंकरके चौथा पंचमूल होता है ॥ १६७ ॥ १६८ ॥
जीवनाख्यं च चक्षुष्यं वृष्यं पित्तानिलापहम् ॥
तृणाख्यं पित्तजिद्दर्भकाशेक्षुशरशालिभिः ॥ १६९ ॥
यह जीवनाख्य पंचमूल नेत्रों में हित है, वीर्यको करे है, पित्त और वातको नाशता है और डाभकाश ईख शर चावलकी जड इन्होंकरके तृणसंज्ञक पंचमूल होता हैं ॥ १६९ ॥ शूकशिम्बीज पक्कान्नमांसशाकफलौषधैः ॥ वर्गितैरन्नलेशोयमुक्तो नित्योपयोगिकः ॥ १७० ॥
For Private and Personal Use Only