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(७६)
अष्टाङ्गहृदये___ लध्वनुष्णं दृशः पथ्यमविदाह्यग्निदीपनम् ॥
लघु सौवर्चलं हृद्यं सुगन्ध्युद्गारशोधनम् ॥ १४३ ॥ हलका है, शीतल है नेत्रोंको पथ्य है, दाहको नहीं करता है, और अग्निको दोपनकरता है, सौवर्चल अर्थात् चमकनेवाला, स्याहनमक हलका है, हृदयमें हित है सुगंधवाला है और डकारोंको शोधताह ॥ १४३ ॥
कटुपाकं विवन्धप्नं दीपनीयं रुचिप्रदम् ॥
उवाधःकफवातानुलोमनं दीपनं बिडम् ॥ १४४॥ पाकमें कटु है विबंधको नाशताहै, दीपन है, और रुचिरको देता है, मनयारी नमक नीचे और ऊपर करके कफ और वातको अनुलोमित करता है दीपन है ॥ १४४ ॥
विबन्धानाहविष्टम्भशूलगौरवनाशनम् ॥
विपाके स्वादु सामुद्रं गुरु श्लेष्मविवर्द्धनम् ॥ १४५ ॥ विबंध-अफरा-विष्टंभ-शूल--भारीपनको नाशता है, खारी नमक पाकमें स्वादु है भारी है और कफको बढाता है ।। १४५ ॥
सतिक्तकटुकक्षारं तीक्ष्णमुत्क्लेदि चोद्भिदम् ॥
कृष्णे सौवर्चलगुणा लवणे गन्धवर्जिताः ॥ १४६ ॥ पृथिवीसे उपजा नमक तिक्त है कटु है, खारी है, तीक्ष्ण है, और ग्लानिको करता है, काले नमकमें पूर्वोक्त सौवर्चल नमकके समान गुण है. परंतु सुगंध नहीं होती है ॥ १४६ ॥
रोमकं लघु पांसूत्थं सक्षारं श्लेष्मलं गुरु ॥
लवणानां प्रयोगे तु सैन्धवादीन् प्रयोजयेत् ॥ १४७॥ रेहसे उपजा नमक कुछेक खारी है, कफको करताहै और भारी है रोमकनमक हलका है और नमकोंके प्रयोगमें सेंधा आदि नमक प्रयुक्त किये जातेहैं ॥ १४७ ॥
गुल्महृद्हणीपाण्डुप्लीहानाहगलामयान् ॥
श्वासार्शःकफकासांश्च शमयेद्यवशूकजः ॥ १४८ ॥ जवाखार गुल्म-हृद्रोग-ग्रहणी दोष-पांडु-प्लीह-अफारा-गलरोग-श्वास -खांसी-बवासीरकफरोगको नाशता है ।। १४८ ॥
क्षारः सर्वश्च परमं तीक्ष्णोष्णः कृमिजिल्लघुः ॥
पित्तासृग्दूषणः पाकी छेद्यहृयो विदारणः ॥ १४९॥ सब खार अति तीक्ष्ण हैं गरम हैं कृमिको जीततेहैं हलके हैं रक्तपित्तको दूषित करते हैं, पाकको करते हैं, छेदन और भेदनमें हित हैं, और पक्क हुये गंडआदि रोगोंको विदारण करते हैं ॥१४९॥
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