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(४८)
अष्टाङ्गहृदयेगव्ये क्षीरघृते श्रेष्ठे निन्दिते चाविसम्भवे ॥
इक्षो रसो गुरुः स्निग्धो बृंहणः कफमूत्रकृत् ॥ ४२ ॥ सबप्रकारके दूध और घृतोंमें गायका दूध और घृत श्रेष्ठहै, और भेडका दूध और घृत निंदित है, ईखका रस भागहै चिकनाहै बृंहणहै कफ और मूत्रको करताहै ॥ ४२ ॥
वृष्यः शीतोऽस्रपित्तन्नः स्वादुपाकरसः सरः॥
सोऽग्रे सलवणो दन्तपीडितः शर्करासमः॥४३॥ वीर्यमें हितहै, शीतलहै, रक्तपित्तको नाशताहै, और स्वादु रूप पाक और रसवालाहै, और सरहै, और ईखके अग्रभागमें रस नमकके समान स्वादुहै, परंतु दंतोंकरके पीडित किया वही रस खांडके समान होजाताहै ॥ ४३ ॥
मूलाग्रजन्तुजग्धादिपीडनान्मलसकरात् ॥
किञ्चित्कालं विधृत्वा च विकृतिं याति यान्त्रिकः॥४४॥ मूल अग्रभाग कीडोंकरके खाया हुआ ईखोंके पीडनसे और मलके मिलापसे और कछुक कालतक विवृतिकरके अर्थात् कोल्हूआदिमें प्राप्त हुआ रस विकारको प्राप्त हो जाता है ॥४४॥
विदाही गुरुविष्टम्भी तेनासौ तत्र पौण्डूकः॥
शैत्यप्रसादमाधुर्यैर्वरस्तमनुवांशिकः ॥४५॥ इसवास्त विदाही और विष्टंभ करनेवाला रस होजाताहै, परंतु तिन ईखोंके रसोंमें शीतलता प्रसन्नता मधुरता इन गुणोंसे संयुक्त पौडाका रस श्रेष्टहै, और इससे हीन वांशिक इखका रस होताहै ।। ४५॥
शातपर्वककान्तारनपालाद्यास्ततः क्रमात् ॥
सक्षाराः सकषायाश्च सोष्णाः किञ्चिद्विदाहिनः ॥४६॥ शातपर्वक कांतार नैपाल इन आदि सब ईख क्रमसे वांशिक ईखसे हीन जानने अर्थात् वांशिक आदि ये च्यारों ईख शीतलता आदि पूर्वोक्त तीनगुणोंसे हीन हैं, और कषाय तथा खारसे संयुक्त है और कछुक गरमहैं और कछुक विदाहको करनेवालेहैं ॥ ४६॥ .
फाणितं गुभिष्यन्दि चयकृन्मूत्रशोधनम् ॥
नातिश्लेष्मकरो धौतः सृष्टमूत्रशकृगुडः ॥४७॥ फाणित अर्थात् क्षुद्रगुडरूम हुआ भारी है कफको करताहै त्रिदोषको करताहैं और मूत्रको शोधताहै संस्कारके वशसे निर्मल हुआ गुड अति कफको नहीं करताहै मूत्र और विष्ठाको रचताहै ४७
प्रभूतकृमिमज्जासृङ्मेदोमांसकफोऽपरः ॥ हृद्यः पुराणः पथ्यश्च नवः श्लेष्माग्निसादकृत् ॥४८॥
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