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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
(४७) दहीके पानीमैंभी येही गुण हैं, परंतु दहीका पानी सर है, और स्त्रोतोंको शोधताहै, और विष्टंभको जीतता हैं हलका है. नवीन नौनी घृत वृष्य है, शीतल है, वर्ण-बल-अग्नि-को करताहै ॥ ३५ ॥
संग्राहि वातपित्तासृक्षयाशोंदितकासजित् ॥
क्षीरोद्भवं तु संग्राहि रक्तपित्ताक्षिरोगजित् ॥ ३६॥ संग्राही अर्थात् स्तंभनहै, और वातरोग-पित्त रक्त-क्षय-बवासीर--लकुवावात-खांसी-को जतिताहै, दूधसे उपजा नौनी घृत स्तंभनहै, रक्तपित्त और नेत्ररोगको नाशता है ॥ ३६ ॥
शस्तं धीस्मृतिमेधाग्निबलायुःशुक्रचक्षुषाम् ॥
बालवृद्धप्रजाकान्तिसौकुमार्यस्वरार्थिनाम् ॥ ३७॥ बुद्धि-स्मृति-मेधा-अग्नि-बल-वीर्य-नेत्रकी इच्छावालोंको और बालक वृद्ध और संतति । कांति । सुकुमारपना स्वरकी इच्छावालोंको श्रेष्ठहै ॥ ३७ ॥
क्षतक्षीणपरीसर्पशस्त्राग्निग्लपितात्मनाम्॥
वातपित्तविषोन्मादशोषालक्ष्मीज्वरापहम् ॥ ३८॥ क्षीतक्षीण-पांगला, शस्त्र और अग्निकरके ग्लपित शरीरवालोंको भी यही घृत हितहै, और यात-पित्त-विष-उन्माद-शोष-दरिद्रपना-ज्वर-को नाश करताहै ॥ ३८ ॥
स्नेहानामुत्तमं शीतं वयसः स्थापनं परम् ॥
सहस्रवीर्य विधिभिघृतं कर्मसहस्रकृत् ॥३९॥ यह वृत सब स्नहोंमें उत्तमहे, शीतलहै, अवस्थाको स्थापित करताहै, और इसके उपरांत अन्य पदार्थ नहीं है, और हजारहों तरहके वीर्यसे संयुक्तहै और विधिपूर्वक सेवित किया पूर्वोक्त नौनी घृत हजारहौं कर्मोको करताहै ॥ ३९ ॥
मदापस्मारमूर्छायशिरःकर्णाक्षियोनिजान् ॥
पुराणं जयति व्याधीन् व्रणशोधनरोपणम् ॥४॥ और पुरातन घृत मद-अपस्मार-मूर्छ-शिर-नेत्र-कान-योनि इन्होंसे उपजी व्याधियोंको नाशताहै, व्रणको शोधता है और रोपित करताहै ॥ ४० ॥
बल्याः किलाटपीयूषर्चिकामोरणादयः॥
शुक्रनिद्राकफकरा विष्टम्भिगुरुदोषलाः॥४१॥ किलाट खुरचण आदि दूधके विकार बलमें हितहै, और वीर्य नींद कफको करते हैं और विष्टंभी है, और भारी है और दोषोंको उपजातेहैं ।। ४१ ॥
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