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(१०४०)
अष्टाङ्गहृदयेऔर काकडासिंगीके कल्कको दूधमें आलोडित कर पीवै ॥ २९ ।। और मिसरी वृत दूधका भोजनकरै, वह स्त्रियोंमें सांडकी समान सुखको देताहै ॥
यः पयस्यां पयःसिद्धां खादेन्मधुघृतान्विताम् ॥३०॥ पिबेबाष्कयणं चानु क्षीरं न क्षयमति सः॥ और जो दूधमें सिद्धकरी क्षरिकाकोलीको घृत और शहदसे मिलाके खावै ।।३०॥ और वाखडी गायका दूध पीवै वह क्षयको नहीं प्राप्तहोता ॥
स्वयंगुप्तेक्षुरकयो/जचूर्णं सशर्करम् ॥३१॥
धारोष्णेन नरः पीत्वा पयसा रासभायते ॥ और कौंच और तालमखानेके बीजोंके चूर्णको खांडसे संयुक्तकर ॥ ३१ ॥ थनोंसे निकसे दूधके संग पानकरके भोग, गधेकी समान आचरित होताहै ॥
उच्चट्टाचूर्णमप्येवं शतावर्याश्च योजयेत् ॥ ३२ ॥ ऐसेही भूमि अवलाके चूर्णको और शतावरीके चूर्णकोभी प्रयुक्तकरै ॥ ३२ ॥
चंद्रशुभं दधिसरं ससितं षष्टिकौदनम् ॥
पटे सुमार्जितं भुक्त्वा वृद्धोऽपि तरुणायते ॥३३॥ चद्रमाकी तरह धबलरूप दहीके शरको मिसरी और शांठीचावलोंसे संयुक्तकर और वस्त्रमें भावितकर खाके वृद्धभी जवानकी समान होजाताहै ॥ ३३ ॥
श्वदंष्टक्षरमाषात्मगुप्ताबीजशतावरीः। पिवन्क्षीरेण जीर्णोऽपि गच्छति प्रमदाशतम् ॥ ३४ ॥ यत्किचिन्मधुरं स्निग्धं बृंहणं बलवर्द्धनम् ॥
मनसो हर्षणं यच्च तत्सर्वं वृष्यमुच्यते ॥ ३५॥ गोखरू खरैटी उडद कौंचके बीज शतावरी इन्होंके चूर्णको वृद्ध मनुष्यभी पान करें तो १०० स्त्रियोंसे भोगकरताहै ॥ ३४ ॥ जो कछु मधुर स्निग्ध और बृंहण बलको वढानेवाला और मनको आनंदित करनेवालाहै वह सब वृष्यकहाहै ॥ ३५॥
द्रव्यैरेवंविधैस्तस्मादर्पितः प्रमदां व्रजेत् ॥
आत्मवेगेन चोदीर्णः स्त्रीगुणैश्चप्रहर्षितः॥३६॥ ऐसे द्रव्योंसे दर्पितहुआ मनुष्य स्त्रियोंके प्रति गमन करताहै अपने वेगसे बढा हुआ और स्त्रियों के गुणोंसे हर्षितहुआ ॥ ३६॥
सेव्या सर्वेद्रियसुखा धर्मकल्पद्रुमांकुराः ॥ विषयातिशयाः पंच शराः कुसुमधन्वनः॥३७॥
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