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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम्। (१०३१) इसवास्ते विशेषसे बात और घामको सहनेवाले योग कहेजावेंगे, जो कि सुखको देनेवाले और व्यापत्तिमेंभी देहको पीडन नहीं करनेवाले हैं ॥ ४५ ॥
शीतोदकं पयः क्षौद्रं घृतमेकैकशो द्विशः ॥ त्रिशः समस्तमथवा प्राक्पीतं स्थापयेद्वयः॥ ४६ ॥ शीतलपानी दूध शहद घृत इन्होंमेंसे एक एक अथवा दो दो अथवा तीन तीन अथवा सब भोजनसे पहिले पान किये जावें तो अवस्थाको स्थापित करतेहैं । ४६ ॥
गुडेन मधुना शुण्ठया कृष्णया लवणेन वा॥
द्वद्वे खादन्सदा पथ्ये जीवेद्वर्षशतं सुखी ॥४७॥ गुडके संग अथवा शहदके संग अथवा पीपलके संग अथवा शुंठीके संग अथवा सेंधानमकके संग दोदो हरडैको सब कालमें खावै सुखी होके १०० वर्षतक जीवताहै ॥ ४७ ॥
हरीतकी सर्पिषि संप्रताप्य समनतस्तत्पिबतो घृतं च ॥ भवेचिरस्थायि बलं शरीरे सकृत्कृतं साधु यथा कृतज्ञे॥४८॥
घतमें हरडैको अच्छी तरह तापितकर भोजन करतेहुये तिस घतको पीवतेहुए मनुष्यके शरीरमें चिरकालतक स्थित रहनेवाला बल होताहै जैसे सज्जन मनुष्यमें एकवार किया शोभनकर्म चिरकालतक ठहरताहै ।। ४८॥
धात्रीरसक्षौद्रसिताघृतानि हिताशनानां लिहतां नराणाम् ।। प्रणाशमायांति जराविकारा ग्रंथा विशाला इव दुर्गृहीताः ॥४९॥
आंवलेका रस शहद मिसरी बृत इन्होंको हितभोजन करनेवाले मनुष्य चाटै तो बुढापेके विकार नाशको प्राप्त होजातेहैं, जैसे दुर्गृहीतकर अर्थात् बुरीतरह पठितकिये विशालग्रंथ भूल जातेहैं४९
धात्रीकृमिनासनसारचूर्णं सतैलसर्पिमधुलोहरेणु॥ निषेवमाणस्य भवेन्नरस्य तारुण्यलावण्यमविप्रणष्टम् ॥ १५० ॥
आंवला वायविडंग आसनाका सार इन्होंके चूर्णमें तेल घृत शहद लोहेका चूर्ण इन्होंको मिलावै, इसको सेवित करनेवाले मनुष्यको नष्टहुआभी तरुणपना और लावण्यता फिर प्राप्तहोताहै ।।१५०॥
लोहं रजो वेल्लभवं च सर्पिः क्षौद्रुतं स्थापितमब्दमात्रम् ॥ सामुद्रके बीजकसारक्लुप्ते लिहन्बली जीवति कृष्णकेशः॥५१॥ लोहका चूर्ण वायविडंग वृत शहद इन्होंसे द्रुतकियेको वीजसारकरके बने संपुटमें एक वर्षतक स्थापितकरै, पीछे इसको चाटनेवाला वली और कालेवालोंवाला होके जीवताहै ॥ ५१ ॥
विडंगभल्लातकनागराणि येऽश्नति सर्पिर्मधुसंयुतानि ॥ जरानदी रोगतरंगिणी ते लावण्ययुक्ताः पुरुषास्तरंति ॥ ५२ ॥
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