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(१०३०)
अष्टाङ्गहृदयेधुकस्य च॥ योगयोग्यं ततस्तस्य कालापेक्षं प्रयोजयेत्॥३८॥ शिलाजमेवं देहस्य भवत्यत्युपकारकम् ॥गुणान्समग्रान्कुरुते सहसा व्यापदं न च ॥ ३९ ॥ पीछ स्निग्ध और शुद्धहुये मनुष्यके तिक्त औषधोंमें साधितकिये घृतको तीन दिनोंतक प्रयुक्तकरे पीछे वक्ष्यमाणरूप एक एकके संग शिलाजीतको तीन दिनोंतक प्रयुक्तकर॥ ३७॥ त्रिफलाके यूषसे अथवा परवलके काथसे अथवा मुलहटीके काथसे यथायोग्य काल आदिको देखकर प्रयुक्तकर ॥ ३८ ॥ ऐसे देहको शिलाजीत उपकारकहै और वेगसे सब गुणोंको करताहै और दुखोंको नहीं करता ॥ ३९ ॥
एकत्रिसप्तसप्ताहं कर्षमपलं पलम् ॥
हीनमध्योत्तमो योगः शिलाज्यस्य क्रमान्मतः ॥ १४०॥ ___ सात दिनोंतक १ तोला पीछे तीन सप्ताहतक दो तोले पीछे सात सप्ताहतक ४ तोले ऐसे हीन मध्य उत्तम योग शिलाजीतका क्रमसे मानाहै ॥ १४० ॥
संस्कृतं संस्कृते देहे प्रयुक्तं गिरिजाह्वयम् ॥ युक्तं व्यस्तैः समस्तैर्वा ताम्रायोरूप्यहेमभिः ॥४१॥ क्षीरेणालोडितं कुर्य्याच्छीघ्रं रासायनं फलम् ॥
कुलत्थां काकमाची च कपोतांश्च सदा त्यजेत् ॥ ४२ ॥ संस्कारको प्राप्तहुये देहमें प्रयुक्तकिया संस्कृतरूप शिलाजीत तांबा लोहा चांदी सोना इन्होंके पृथक २ भावोंसे अथवा सबोंसे युक्त ॥ ४१ ।। और दूधसे आलोडित किया रसायनके फलको करताहै और इसपे कुलथी मकोह कबूतरका मांस इन्होंको सब कालमें त्यागे ॥ ४२ ॥
न सोस्ति रोगो भुवि साध्यरूपो जत्वश्मजयन जयेत्प्रसा॥ तत्कालयोगैर्विधिवत्प्रयुक्तं स्वस्थस्य चोर्जा विपुलां दधाति॥४३॥ इस भूलोकमें ऐसा साध्यरूप रोग नहींहै कि जिसको शिलाजीत हटसे नहीं जीत सकताहै और स्वस्थ मनुष्यके तत्काल योगोंसे विधिपूर्वक प्रयुक्तकिया शिलाजीत विपुलरूप पराक्रमको धारण करताहै ॥ ४३॥
कुटीप्रवेशः क्षणिनां परिच्छदवतां हितः॥ अतोऽन्यथा तु ये तेषां सूर्यमारुतिको विधिः ॥४४॥ __ व्यापार करणके प्रति स्वतंत्रोंको तथा कुटुंबवालोंको पूर्वोक्त कुटेिप्रवेशविधि हितहै और जो परतंत्रहैं और कुटुंबसे रहितहैं तिन्होंको सूर्यमारुतिक विधि हितहै ।। ४४ ॥
वातातपसहा योगा वक्ष्यतेऽतो विशेषतः॥ सुखोपचारा भ्रंशेऽपि ये न देहस्य वाधकाः॥४५॥
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