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(१०२६)
अष्टाङ्गहृदयेअसनखदिरयूषैर्भावितां सोमराजी मधुघृतशिखिपथ्यालोइचूर्णैरुपेताम् ॥ शरदमवलिहानः पारिणामान्विकारांस्त्यजतिमितहिताशी तद्वदाहारजातान् ॥७॥ असन और खैरके यूषोंसे भावितकरी और शहद घृत चीता हरडै लोहेके चूर्णसे संयुक्तकरी बावचीको शरदऋतुमें चाटताहुआ मनुष्य प्रमाणित और हित भोजनको वाताहुआ परिणामसे उपजे और भोजनसे उपजे विकारोंको त्यागताहै ॥ ७ ॥
तीव्रण कुष्ठेन परीतमूर्तियः सोमराजी नियमेन खादेत् ॥ संवत्सरं कृष्णतिलद्वितीयां ससोमराजी वपुषाऽतिशेते ॥ ८॥ तीव्रकुष्ठसे व्याप्त शरीखाला जो मनुष्य नियमसे काले तिलोंसे संयुक्तहुई वावचीको एक वर्षतक खावै, वह चंद्रमाकी कांतिके समान शरीरसे अत्यंत शोभितहोताहै ॥ ८ ॥
ये सोमराज्या वितुषीकृतायाश्चूर्णरुपेतात्पयसः सुजातात् ॥ उद्धृत्य सारं मधुना लिहन्ति तकं तदेवानुपिबन्ति चान्ते॥९॥ कुष्ठिनः कुथ्यमानाङ्गास्ते जातांगुलिनासिकाः॥ भान्ति वृक्षा इव पुनः प्ररूढनवपल्लवाः॥ ११० ॥
जो मनुष्य तुपसे वर्जितहुई वावचीके चूर्णसे संयुक्तहुये दूधस उपजे नोनी घृतको शहदमें मिलाके चाटै और अंतमें तिसीके तक्रको पातहैं ॥ १०९ ॥ व कुथ्यमान अंगोवाले कुष्टी फिर उपज हुई अंगुली और नासिकावाले होके प्रकाशित होतेहैं, जैसे फिर अंकुरित नवीन पत्तोंवाले वृक्ष ॥ ११० ॥
शीतवातहिमदग्धतनूनां स्तब्धभुग्नकुटिलव्यथितास्थ्नाम् ॥ भेषजस्य पवनोपहतानां वक्ष्यते विधिरतो लशुनस्य ॥ ११ ॥
शीत वात हिमसे दग्ध शरीरवालोंके और स्तब्ध भुग्न कुटिल पीडित हड्डियोंवालके और पत्रनसे उपहत हुयोंके औषध जो लस्सनहै तिसकी विधिको कहेंगे ॥ ११ ॥
राहोरमृतचौर्येण लूनाये पतिता गलात् ॥ अमृतस्य कणा भूमौ ते रसोनत्वमागताः ॥ १२ ॥ द्विजा नाश्नंति तमतो दैत्यदेहसमुद्भवम् ॥ • साक्षादमृतसम्भूते ग्रामणीः स रसायनम् ॥ १३ ॥ अमृतकी चोरीकरके राहुके कटेहुये गलसे जो अमृतके कणके पृथ्वीमें गिरथे वे ल्हसन होके ऊंगहें ॥ १२ ॥ तमोगुणपनेसे दैत्यके देहसे उपजे लस्सनको ब्राह्मण आदि द्विज नहीं खातेहैं, और साक्षात् अमृतकी उत्पत्तिके हेतुसे यह श्रेष्ठ रसायनहै ।। १३ ॥
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