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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
कफजो न स रोगोऽस्ति न विबन्धोऽस्ति कश्चन ॥ यं न भल्लातकं हन्याच्छीघ्रमग्निबलप्रदम् ॥ ८२ ॥
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( १०२३)
ऐसा कोई कफका रोग नहीं है, ऐसा कोई विबंध नहीं है, कि जिसको भिलावा नहीं नाशता है शीघ्र अग्नि बलको देताहै ॥ ८२ ॥
वातातपविधानेऽपि विशेषेण विवर्जयेत् ॥ कुलत्थदधि शुक्तानि तैलाभ्यङ्गाग्निसेवनम् ॥ ८३ ॥ • वात और घामके विधानमेंभी विशेषकारिकै कुलथी दही शुक्त तेलका मालिश अग्निसेवन इन्होंको वर्जे ॥ ८२ ॥
वृक्षास्तुवरका नाम पश्चिमार्णवतीरजाः॥ वीचीतरङ्गविक्षोभमारुतोताः ॥८४॥ तेभ्यः फलान्याददीत सुपक्कान्यम्बुदागमे ॥ मजां फलेभ्यश्चादाय शोषयित्वाऽवचूर्य च ॥ ८५ ॥ तिलवत्पीडयेद्रोण्यां क्वाथयेद्वा कुसुम्भवत् ॥ तत्तैलं सम्भृतं भूयः पचेदासलिलक्षयात् ॥ ८६ ॥ अवतार्य्य करोषे च पक्ष मात्रं निधापयेत् ॥ स्निग्धस्विन्नो हृतमलः पक्षादुद्धृत्य तत्ततः॥ ॥ ८७ ॥ चतुर्थभक्तान्तरितः प्रातः पाणितलं पिबेत् ॥ मन्त्रेणानेन पूतस्य तैलस्य दिवसे शुभे ॥ ८८ ॥ मज्जासारमहावीर्य सर्वान्धातृन्विशोधय ॥ शंखचक्रगदापाणिस्त्वामाज्ञापयतेऽ च्युतः ॥ ८९ ॥ तेनास्योर्ध्वमधस्ताच्च दोषा यान्त्य सकृत्ततः ॥ सायं सस्नेहलवणां यवागूं शीतलां पिबेत् ॥ ९०॥ पञ्चाहानि पिबेत्तैलमित्थं वर्ज्यानि वर्जयेत् ॥ पक्षं मुद्गरसान्नाशी सर्वकुष्ठैविमुच्यते ॥ ९१ ॥
पश्चिम समुद्रके तीरपै उपजनेवाले और वीची तरंगक्षोभवायुसे उद्धृतये पत्तोंवाले तुवरक नामवाले वृक्ष ॥ ८४ ॥ तिन्होंसे ग्रीष्मऋतु में पकेहुये फलोंको ग्रहणकरे और तिन फलोंसे निकासी हुई मज्जाको शोषित और चूर्णितकर ॥ ८५ ॥ द्रोणीमें तिलों की तरह पीडितकरे, अथवा कसूंभेकी तरह कथितकरै, तिस तेलको फिर पकावै जबतक पानीका नाशहोवे ॥ ८६ ॥ पीछे उतारकै गोबरमें १५ दिनोंतक स्थापितकरै, स्निग्ध और स्वेदितहुआ और हृतद्दुये मलवाला॥८७॥ चौथे भोजनसे अंतरितहुआ मनुष्य प्रभातमें एक तोलेभरको पीवै, परंतु शुभदिनमें इस वक्ष्यमाण मंत्र से तेलको पवित्रकरे ॥ ८८ ॥ हे मज्जा के सार हे महावीर्यवाले तू सब धातुओंको विशेषकरके शुद्धकर और शंख चक्र गदाको हाथमें लेनेवाले श्रीकृष्ण भगवान् तुझे आज्ञा देते हैं ॥ ८९ ॥