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( १०१४ )
अष्टाङ्गहृदये
मंगलआदिको कियेहुये और पवित्र मनुष्य शुभदिनमें गुरु मित्र आदिकी पूजा कर तिस पूर्वोक्त कुटी में प्रवेशकर, तहां संशोधन औषधोंसे शुद्ध सुखी और फिर उत्पन्न हुये बलवाला ॥ ८ ॥ ब्रह्मचारी धैर्य्यसे युक्त और शुद्धियुक्त जितेंद्रिय दानशील दया सत्य व्रत धर्ममें परायण ॥ ९ ॥ और देवतोंकी स्मृतिमें युक्त और शयनमें जागने में युक्त औषधोंमें प्यार करनेवाला, मधुरवाणीवाला वह मनुष्य रसायनका प्रारंभ करै ॥ १० ॥
हरीतकी मामलकं सैन्धवं नागरं वचाम् ॥
हरिद्रां पिप्पलीं वेलं गुडं चोष्णाम्बुना पिवेत् ॥ ११ ॥ स्निग्धः स्विन्नो नरः पूर्वं तेन साधु विरिच्यते ॥
हरडै आँवला सेंधानमक सूंठ वच हलदी पीपल वायविडंग गुड इन्होंको गरमपानी के संग || ॥ ११ ॥ स्निग्ध और स्विन्नहुआ मनुष्य पहिले पीवै, तिससे अच्छीतरह जुलाब लगता है ॥ ततः शुद्धशरीराय कृतसंसर्जनाय च ॥ १२ ॥ त्रिरात्रं वा पञ्चरात्रं सप्ताहं वा घृतान्वितम् ॥
दद्याद्यावकमाशुद्धेः पुराणशकृतोऽथवा ॥ १३ ॥
पीछे शुद्धशरीरवाले पेया आदि क्रमको करनेवाले तिस मनुष्यके अर्थ ॥ १२ ॥ तीनरात्रि अथवा पांचरात्रि तथा सातररात्रितक घृतसे संयुक्त किये यावक अर्थात् हरीरेको देवै, अथवा पुराणे विष्ठाकी शुद्धि होवे तबतक देवै ॥ १३ ॥
इत्थं संस्कृत कोष्ठस्य रसायनमुपाहरेत् ॥
यस्य यद्योगिकं पश्येत्सर्वमालोच्य सात्म्यवित् ॥ १४ ॥
ऐसे संस्कृत कोटवाले जो योगिक होवे, तिसको देख और प्रकृतिको जाननेवाले बैद्य अच्छीतरह देख रसायनको प्रयुक्तकरे ॥ १४ ॥
पथ्यासहस्रं त्रिगुणधात्रीफलसमन्वितम्॥पञ्चानां पञ्चमूलाना सार्द्धं पलशतद्वयम् ॥ १५॥ जले दशगुणे पक्त्वा दशभागस्थिते रसे ॥ आपोथ्य कृत्वा व्यस्थीनि विजयामलकान्यथ ॥ १६ ॥ विनीय तस्मिन्निर्यूहे योजयेत्कुडवांशकम् ॥ त्वगेला मुस्तरजनीपिप्पल्यगुरुचन्दनम् ॥ १७ ॥ मण्डूकपर्णीकनकशंखपुष्पीव
लम् ॥ ष्ट्ाह्वयं विडङ्गं च चूर्णितं तुलयाधिकम् ॥ १८ ॥ सितोपलार्द्ध भारं च पात्राणि त्रीणि सर्पिषः ॥ द्वे च तैलात्पचेत्सर्वं तदन्नौ लेहतां गतम् ॥ १९ ॥ अवतीर्ण हिमं युञ्ज्याद्विंशैः क्षौद्रशतौस्त्रभिः ॥ ततः खजेन मथितं निदध्यादुद्घृतभाजने ॥२०॥यानेापरुन्ध्यादाहारमेकं मात्रास्य सा स्मृता ॥ षष्टिकः
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