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(१००६)
अष्टाङ्गहृदयेमुलहटी मैनफल अंकोली देवताडफल संभालू इन्होंको चौंलाईके पानीके संग पानकर कफकी अधिकतामें तत्काल विषको वमनकरके निकास ॥ ७६ ॥
शिरीषपत्रत्वङ्मूलफलं वांकोल्लमूलवत् ॥
विरेचयेच्च त्रिफलानीलिनीत्रिवृतादिभिः॥७७ ॥ अथवा शिरसके पत्ते छाल जड फल अंकोलीकीजड इन्होंको चौंलाईके पानीके संग पानकरके वमनकर, अथवा त्रिफला कालादाना निशोत आदिसे जुलाब दिवावै ।। ७७ ।। .
निवृत्ते दाहशोफादौ कर्णिकां पातयेद् व्रणात् ॥ निवृत्तहुये दाह और शोजा आदिमें घावसे कर्णिकाको गिरावै ॥
कुसुम्भपुष्पं गोदन्तः स्वर्णक्षीरी कपोतविट् ॥ ७८ ॥ त्रिवृता सैन्धवं दन्तीकर्णिकापातनं तथा॥
मूलमुत्तरवारुण्या वंशनिर्लेखसंयुतम् ॥ ७९ ॥ और कसुंभाके फूल गोदंती हरताल चोष कबूतरकी वीट ॥ ७८ ॥ निशोत सेंधानमक जमालगोटाकी जड ये कर्णिकाको गिरातेहैं और उत्तम अर्णिकी जडमें वंशके निलेखको मिलावे, पूर्वोक्त फल होताहै ॥ ७९ ॥
तद्वच्च सैन्धवं कुष्ठं दन्ती कटुकदौग्धिकम् ॥
राजकोशातकीमूलं किणो वा मथितोद्भवः॥ ८॥ ऐसेही सेंधानमक कूट जमालगोटेकी जड कुटकी दूधी रानी कडवी तोरईकी जड अथवा तकसे उपजाकिणा ये कर्णिकाको गिरातेहैं ॥ ८ ॥
कणिकापातसमये बृहयेच्च विषापहैः॥ कार्णकाको गिरानेके समयमें विषको नाशनेवाले औषधोंसे वृहितकरै ।
स्नेहकार्यमशेषं च सर्पिषैव समाचरेत् ॥ ८१॥ और अशेषरूप स्नेह कार्यको घृत करकेही करे ।। ८१ ॥
विषस्य वृद्धये तैलमग्नोरिव तृणोलुपम् ॥ विषकी वृद्धिके अर्थ तेल ऐसाहै कि जैसे अग्निके अगाडी तृणका समूह ।। हीबेरवैकडूतगोपकन्यामुस्ताशमीचन्दनटिण्टुकानि ॥ शैवालनीलोत्पलवक्रयष्टीत्वग्नाकुलीपद्मकराठमध्यम् ॥८२॥ रजनीघनसर्पलोचनाकणशुण्ठीकणमूलचित्रकाः॥ वरुणागुरुबिल्वपाटलीपिचुमन्दाभयशेलुकेसरम्॥८॥बिल्वचन्दननतोत्पलशुण्ठीपिप्पलीचुलवेतसकुष्ठम् ॥ शक्तिशाकवरपाटलिभाी
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