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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् ।
( ४३ )
ऐसी नदियों का जल संक्षेपसे पथ्य है, और इन्होंसे विपरीत नदियें अपथ्य हैं और पत्थरोंके आस्फालनके क्षोभसे मिली हुई क्षोभरूप पानीसे संयुक्त ॥ ९ ॥
हिमवन्मलयोद्भूताः पथ्यास्ता एव च स्थिराः ॥ कृमिश्लीपदहृत्कण्ठशिरोरोगान् प्रकुर्वते ॥ १० ॥
हिमवान् और मलयाचलसे उत्पन्न हुई और स्थिर नदियोंका जल पथ्य है, परंतु इससे विपरीत न बहती हुई कृमि - लीपद - हृद्रोग- कंठरोग - शिरोरोग - को करती हैं ॥ १० ॥ प्राच्याऽऽवन्त्यापरान्तोत्था दुर्नामानि महेन्द्रजाः ॥ उदरश्लीपदार्तकान् सह्यविन्ध्योद्भवाः पुनः ॥ ११ ॥
प्राच्य अर्थात् गौडदेशमें उपजी, और आवन्त्य अर्थात् मालवादेशमें उपजी और अपरांत अर्थात् कोकणदेशमें उपजी नदियां बवासीर रोगको करती हैं, और महेंद्रपर्वर्तसे उपजी नदियां उदररोग - और श्लीपदको करती हैं सा और विंध्यपर्वतसे उपजी नदियां ॥ ११ ॥ कुष्ठपाण्डुशिरोरोगान् दोषघ्नाः पारियात्रजाः ॥
बलपौरुषकारिण्यः सागराम्भस्त्रिदोषकृत् ॥ १२ ॥
कुष्ठ - पांडु - शिरोरोग - को करती हैं, पारियात्र पर्वतसे उपजी नदियां दोषोंको नाशती हैं और बल तथा पौरुषको करती है और समुद्रका पानी त्रिदोषको करता है ॥ १२ ॥
विद्यात् कूपतडागादीञ्जाङ्गलानूपशैलतः ॥
नाम्बु पेयमशक्त्या वा स्वल्पमल्पाग्निगुल्मिभिः ॥ १३॥ जांगल - अनूप - शैल - इन्होंमें यथायोगसे कूप और तलाब आदिके जलोंको हलके और भारी जानना जांगलदेशमें कूपादिका लघु अनूपदेशमें बहुत जल होनेसे गुरु पर्वतमें अल्पहोनेसे लघुतर जानना और शक्तिके बिना अल्पजलकोभी नहीं पीवै और मंदाग्निगला गुल्मवाला ॥ १३ ॥ पाण्डूदरातिसाराशग्रहणीदोषशोथिभिः ॥
ऋते शरन्निदाघाभ्यां पिबेत् स्वस्थोऽपि चाल्पशः ॥ १४ ॥ और पांडु - उदररोग - अतिसार - बवासीर - संग्रहणी दोष - शोजा- इन रोगोंवालेको बहुत पानी नहीं पीना, शरद और ग्रीष्म ऋतुके विना स्वस्थ मनुष्य भी अल्परूप जलको पीतार है ॥ १४ ॥
समस्थूलकुशाभक्तमध्यान्तप्रथमाम्बुपाः ॥
शीतं मदात्ययग्लानिमृच्छछर्दिश्रमभ्रमान् ॥ १५ ॥ भोजन के मध्य - अन्त - आदि - जलको पीनेवाले मनुष्य क्रमसे सम-स्थूल-कुश होजातेहैं, और शीतल पानी मदात्यय-ग्लानि-मूर्च्छा-छर्दि - भ्रम - श्रम अर्थात् पसीना ॥ १९ ॥
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