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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (९७७) पहिले विषके वेगमें वमन कराके और शीतलपानीसे सेचित कियेको शहद और घृतसे संयुक्त कर पीछे औषधका पान करावै ॥ १७ ॥ .
द्वितीये पूर्ववद्वान्तं विरिक्तं चानुपाययेत् ॥ दूसरे विषके वेगमें पहिलेकी तरह शीतल पानीसे सेचितकर वमन और जुलाबसे संयुक्त कर औषधका पान करावै ॥
तृतीयेऽगदपानं तु हितं नस्यं तथाञ्जनम् ॥ १८॥ और तीसरे वेगमें औषधका पान नस्य अंजन हितहै ॥ १८ ॥
चतुर्थे स्नेहसंयुक्तमगदं प्रतियोजयेत् ॥
पञ्चमे मधुकक्काथमाक्षिकाभ्यां युतं हितम् ॥ १९॥ चौथेवेगमें स्नेहसे संयुक्तकरी औषधको प्रयुक्तकरै और पांचवें वेगमें मुलहटीका काथ और शहदसे संयुक्तकिया औषध हितहै ।। १९ ॥
षष्टेऽतिसारवसिद्धिःछठेवेगमें अतीसारकी तुल्य चिकित्सा करनी ॥
अवपीडस्तु सप्तमे ॥ मूर्ति काकपदं कृत्वा सासृग्वा पिशितं क्षिपेत् ॥२०॥
और सातवें वेगमें रोगानुत्पादनीय अध्यायमें कहा अवपीड देना योग्यहै, अथवा शिरमें काक पदचिह्नको करके रक्तसे सहित मांसको स्थापितकरै ॥ २० ॥
कोशातक्यग्निकः पाठा सूर्यवल्ल्यमृताभयाः॥ शेलुः शिरीषः किणिही हारिद्रे क्षौद्रसाह्वया ॥२१॥ पुनर्नवे त्रिकटुकं बृहत्यौ सारि बला ॥ एषां यवागू नि!हेऽशीतां सघृतमाक्षिकाम् ॥ २२॥
युंज्याद्वेगान्तरे सर्वविषघ्नी कृतकर्मणः ॥ कडवीतोरई चीता पाठा ब्राह्मी गिलोय हरडै ल्हेसवा सिरस किणिही हलदी दारुहलदी वटमाक्षिक ॥२१॥ दोनों शांठी सूठ मिरच पीपल दोनोंकटेहली दोनों अनन्तमूल खरेहटी इन्होंको काथमें सिद्ध नहीं शीतलहुई घत और शहदसे संयुक्त यवागको ॥ २२ ॥ अन्य वेगोंमें योजितकरै यह सब प्रकारके विषोंको नाशतीहै परन्तु कृतकर्मवाले रोगीके अर्थ यह यवागू हितहै ।।
- तद्वन्मधूकमधुकपद्मकेसरचन्दनैः ॥ २३ ॥ और तैसेही महुआ मुम्हटो कमलकेशर चंदनके काथोंसे और शीतल घृत और शहदसे संयुक्त पेयाको प्रयुक्त करै ॥ २३ ॥
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