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(९७६)
अष्टाङ्गहृदयेकफपित्तानिलाश्चानु समं दोषान्सहाशयान् ॥
ततो हृदयमास्थाय देहोच्छेदाय कल्यते ॥ १० ॥ जिसकारणसे विष शरीरमें प्राप्त होके पहिले सब शरीगतरक्तको दूषित करताहै ॥ ९ ॥ पीछे आशयसे सहित कफ पित्त वातको दूषित करताहै पीछे समान रूप हृदयमें स्थित होके देहके नाशके अर्थ समर्थ होजाताहै ॥ १० ॥
स्थावरस्योपयुक्तस्य वेगे पूर्व प्रजायते॥
जिह्वायाः शाश्वता स्तम्भो मूर्छा त्रासः क्लमो वमिः॥११॥ उपयुक्त किये स्थावर विषके प्रथम वेगमें जीभका धूम्रपना,स्तभ मूर्छा त्रास ग्लानि छर्दि उपजतेहें ११
द्वितीये वेपथुः स्वेदो दाहः कण्ठे च वेदना ॥
विषं चामाशयं प्राप्तं कुरुते हृदि वेदनाम् ॥ १२॥ . दूसरे वेगमें कंप पसीना दाह कंठो पीडा उपजतेहैं, और आमाशयमें प्राप्तहुआ विष हृदयमें पीडाको करताहै ॥ १२ ॥
तालुशोषस्तृतीये तु शूलं चामाशये भृशम् ॥ दुर्बले हरिते शूने जायेते चास्य लोचने ॥ १३ ॥
पक्वाशयगते तोदहिधमाकासान्त्रकूजनम् ॥ तीसरे वेगमें तालुका शोष और आमाशयमें अत्यंत शूल दुर्बल और हरे और शोजासे संयुक्त नेत्र होजातेहैं ॥ १३ ॥ पक्वाशयमें गतहुये विषमें चभका हिचकी खांसी आंतोका बोलना उपजतेहैं ।। - चतुर्थे जायते वेगे शिरसश्चातिगौरवम् ॥ १४ ॥ और चौथे वेगमें शिरका भारीपन उपजताहै ॥ १४ ॥
कफप्रसेको वैवयं पर्वभेदश्च पञ्चमे ॥
सर्वदोषप्रकोपश्च पक्वाधाने च वेदना ॥ १५॥ पांचवें वेगमें कफका प्रसेक वर्णका बदलजाना संधियोंका भेद सब दोषोंका प्रकोप और चमका हिचकी खांसी आंतोका बोलना ये सब उपजतहैं ॥ ११ ॥
षष्ठे संज्ञाप्रणाशश्च सुभृशं चातिसार्यते ॥ छठे वेगमें संज्ञाका नाश भीर अत्यंत अतिसार उपजता है ॥
स्कन्धपृष्ठकटीभङ्गो भवेन्मृत्युश्च सप्तमे ॥ १६ ॥ और सातवें वेगमें स्कंध पृष्ठभाग कटीका भंग और मृत्यु होजातीहै ॥ १६ ॥
प्रथमे विषवेगे तु वान्तं शीताम्बुसेचितम् ॥ सर्पिर्मधुभ्यां संयुक्तमगदं पाययेद्भुतम् ॥ १७॥
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