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उत्तरस्थान भाषाटीकासमेतम्। (९६९) लिम्पेत्कषायैः सक्षौलिखित्वा शतपोनकम् ॥२०॥ और शतपोनकरोगको लेखितकर पीछे शहदसे संयुक्तकिये कसैले द्रव्योंके चूर्णो से लेपित करै२०॥ . रक्तविद्रधिवत्काऱ्यां चिकित्सा शोणिताव॑दे ॥ रक्तार्बुदमें रक्तकी विद्रधीकी समान चिकित्सा करनी योग्यहै ॥
व्रणोपचारं सर्वेषु यथावस्थं प्रयोजयेत् ॥२१॥ और सबप्रकारके लिंगरोगोंमें अवस्थाके वससे व्रणके उपचारोंको प्रयुक्त करै ॥ २१ ॥ . योनिव्यापत्सु मयिष्टं शस्यते कर्म वातजित् ॥
स्नेहनस्वेदवस्त्यादिवातजासु विशेषतः ॥२२॥ योनिकी व्यापदोंमें विशेष करके वातको नाशनेवाला कर्म श्रेष्ठ है और वातसे उपजी योनिकी व्यापत्में विशेष करके स्नेह स्वेद बस्ति आदि चिकित्सा हित है ॥ २२ ॥
नहि वाताहते योनिर्वनितानां प्रदुष्यति ॥
अतो जित्वा तमन्यस्थ कादोषस्य भेषजम् ॥ २३॥ वायुके विना स्त्रियोंकी योनि दूषित नहीं होतीहै,इस कारणसे प्रथम वायुको जीतके पीछे अन्य दोषकी औषधको करै ॥२३॥
पाययेत बलातैलं मिश्रकं सुकुमारकम् ॥ स्निग्धस्विन्नां तथा योनि दुःस्थितां स्थापयेत्समाम्॥२४॥ पाणिनोन्नमयेजिह्मां संवृत्तां व्यधयेत्पुनः॥ प्रवेशयेनिःसृताञ्च विवृत्तां परिवर्तयेत् ॥२५॥
स्थानाप्रवृत्ता योनिर्हि शल्यभूता स्त्रियो भवेत् ॥ बलातेल मिश्रकतेल सुकुमारकतेल इन्होंका स्त्रीको पान करावै, और स्निग्ध तथा स्वेदित और दुःस्थित योनिको समानरूप स्थापितकरै ॥ २४ ॥ और कुटिल योनिको हाथसे उन्नमितकरै और संवृत्तहुई योनिको वेधित करके फिर प्रसारित करै, और निकसीहुई योनिको प्रवेशित करें, और विवृतहुई योनिको परिवर्तित करें ॥ २५॥और स्त्रीको स्थानसे भ्रष्टहुई योनि शल्यरूप होजातीहै ।
कर्मभिर्वमनायैश्च मृदुभिर्योजयेस्त्रियम् ॥२६॥ सर्वतः सुविशुद्धायाः शेष कर्म विधीयते ॥
वस्त्यभ्यङ्गपरीषकप्रलेपपिचुधारणम् ॥ २७॥ इसकारण कोमलरूप वमनआदि कर्मोंसे स्त्रीको योजितकरै ॥ २६ ॥ मुख और गुदाके द्वारा शुद्धहुई स्त्रीके शेपरहे बस्तिकर्म मालिश परिपेक लेप घृतमें भीगेहुये रूईके फोहेका धारना इन सब कोंको करें ॥ २७॥
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