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(९५६)
अष्टाङ्गहृदयेदहेत्तु तिलकालकान् ॥ १३॥ माषांश्च सूर्यकान्तेन
क्षारेणयदिवाऽग्निना॥ और तिलकालकों ( शरीरकेतिल ) को ॥ १३ ॥ और मस्सौंको सूर्यकांत मणी अथवा खार अथवा अग्निसे दग्धकरै ॥
तद्वदुत्कृत्य शस्त्रेण चमकीलजतूमणी ॥ १४॥ और तैसेही शस्त्रसे चर्मकील और जतूमणीको काटके इन पूर्वोक्तोंसे दग्धकरे ॥ १४ ॥
लाञ्छनादित्रये कुर्य्याद्यथासन्नं शिराव्यधम् ॥
लेपयेत्क्षीरपिष्टैश्च क्षीरिवृक्षत्वगंकुरैः ॥१५॥ लांछन व्यंग नीलिका इन तीनोंमें समीपकी नाडीका वेध करे, और दूधमें पिसे हुये दूधवाले वृक्षोंके छाल और अंकुरोंसे लेपकरै ।। १६ ॥
व्यङ्गेषु चार्जुनत्वग्वा मञ्जिष्ठा वा समाक्षिका ॥
लेपः सनवनीता वा श्वेताश्वखुरजामषी ॥१६॥ व्यंगआदि रोगोंमें शहदसे संयुक्त कीहुई कोहवृक्षकी छाल अथवा मजीठका लेप हितहै अथवा सफेदघोडेके खुरकी श्याहीको नौनीघृतमें मिला लेपकरै ॥ १६ ॥
रक्तचन्दनमञ्जिष्ठाकुष्ठरोध्रप्रियङ्गवः ॥
वटांकुरा मसूराश्च व्यङ्गना मुखकान्तिदाः ॥ १७ ॥ लालचंदन मजीठ कूट लोध मालकांगनी वडके अंकुर मसूर इनोंका लेप व्यंगरोगको नाशताहै और मुखकी कांतिको देताहै ॥ १७ ॥
द्वे जीरके कृष्णतिलाः सर्षपाः पयसा सह ॥
पिष्टाः कुर्वन्ति ववेन्दुमपास्तव्यङ्गलाञ्छनम् ॥१८॥ दोनों जीरे काले तिल सरसों इन्होंको दूधके संग पीस लेपकरै यह व्यगके चिह्नसे वर्जित और चंद्रमाके सदृश मुखको बना देताहै ।। १८ ॥
क्षीरपिष्टा घृतक्षौद्रयुक्ता वा भृष्टनिस्तुषाः। मसूराः क्षीरपिष्टा वा तीक्ष्णाः शाल्मलिकण्टकाः ॥ १९॥सगुडः कोलमज्जा वा शशासृक्क्षौद्रकल्कितः॥ सप्ताहं मातुलुङ्गस्थं कुष्ठं वा मधुनान्वितम् ॥२०॥ पिष्टा वा छागपयसा सक्षौद्रा मौशली जटा॥ गोरस्थिमुशलीमूलयुक्तं वा साज्यमाक्षिकम् ॥२१॥ तुषोंसे वर्जित और भुनेहुये और दूधमें पिसे और घृत तथा शहदसे संयुक्त मसूरों का लेप अथवा दूध पिसेहुये तीक्ष्णरूप शंभलके काटोंका लेप ॥ १९ ॥ अथवा शसाका रक्त शहद और गुड इन्होंसे संयुक्तकरी बेरकी मजाका लेप अथवा सात दिनोंतक बिजोराके भीतर स्थितहुये कूटको शदहसे
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