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(९५२)
अष्टाङ्गहृदयेशर्करोन्मथिते पादे क्षते वा कण्टकादिभिः ॥ - ग्रन्थिः कीलवदुत्सन्नो जायते कदरं तु तत् ॥ २१॥
कंकरोंसे पीडितहुये अथवा काँटे आदिसे क्षतहुये पैरमें कीलकी तरह उंची ग्रंथि उपजै वह कदर रोग कहाताहै ॥ २१ ॥
वेगसन्धारणाद्वायुरपानोपानसंश्रयम् ॥ अणूकरोति बाह्यान्तार्गमस्य ततः शकृत् ॥ २२ ॥
कृच्छान्निर्गच्छति व्याधिरयं रुद्धगुदो मतः॥ वेगके धारनेसे अपानवायु अपानके संश्रयमार्गको भीतर और बाहरसे सूक्ष्म करता है, तब इस रोगीकी विष्टा ।। २२ ॥ कष्टसे निकसतीहै, यह रोग रुद्वगुद कहाहै ।।
कुर्य्यात्पित्तानिलं पाकं नखमांसे सरुग्ज्वरम् ॥ २३ ॥
चिप्यमक्षतरोगं च विद्यादुपनखं च तम् ॥ पित्त और वायु नखके मांसमें पीडा और ज्वरसे सहित पाकको करै तिसको ॥ २३ ॥ चिप्य अथवा अक्षतरोग अथवा उपनखरोग जानो ॥
कृष्णोऽभिघाताक्षश्च खरश्च कुनखो नखः ॥ २४॥ और चोटके लगनेसे काला और रूखा और तीक्ष्ण होजावे तिसको कुनख रोग कहतेहैं।॥२४॥
दुष्टकर्दमसंस्पर्शात्कण्डूक्लेदान्वितान्तराः॥
अंगुल्योऽलसमित्याहुःदुष्ट कीचडके संस्पर्शसे खाज और क्लेदसे युक्त मध्यभागवाली अंगुलियां होजाय वह अलस रोग कहातीहै ।
तिलाभांस्तिलकालकान् ॥२५॥ कृष्णानवेदनांस्त्वस्थान्माषांस्तानेव चोन्नतान् ॥ और तिलके सदृश तिलकालकरोग कहेहैं ॥ २५ ॥ये काले और पीडासे रहित और त्वचामें स्थित तिल होतेहैं और ऊंचेहुये वेही मस्से कहातेहे ॥ .
माषेभ्यस्तून्नततरांश्चमकीलान्सितासितान् ॥ २६॥ और तिन मस्सोंसेभी अत्यंत ऊंचे और सफेद अथवा काले चर्मकील कहातेहैं ॥ २६ ।।
तथाविधो जतुमणिः सहजो लोहितस्तु सः॥ और तैसाही और साथही उपजाहुआ और लालवर्णवाला जतुमणिरोग कहाताहै ॥
कृष्णं सितं वा सहजं मण्डलं लाञ्छनं समम्॥ २७॥ और कृष्ण अथवा श्वेत शरीरके साथ उपजा मंडलके आकार और शरीरके समान लांछन लस्सन कहताहै ॥ २७॥
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