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उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम्। (९३७) सर्वत्र च बहुच्छिद्रे छेदानालोच्य योजयेत् ॥
गोतीर्थसर्वतोभद्रदललाङ्गललाङ्गलान् ॥ ३०॥ और बहुतछिद्रवाले भगंदरमें छिद्रोंको देखके औषध योजनकरे और गोतीर्थ सर्वतोभद्रका दल और लांगल इन शस्त्र कर्मोंको योजनकरे ॥ ३०॥
पार्श्व गतेन शस्त्रेण च्छेदो गोतीर्थको मतः॥ सर्वतः सर्वतोभद्रः पार्श्वच्छेदोऽर्द्धलाङ्गलः ॥३१॥
पार्श्वद्वये लागलकःऔर पसवाडेमें प्राप्तहुये भगंदरको शस्त्रसे छेदनकरे इसको गोतीर्थक कहतेहैं और चारों तरफसे छेदनकरेको सर्वतोभद्र कहतेहैं, और पसवाडेके छेदनको अर्द्धलांगल कहतेहैं ॥ ३१ ॥ और जो दोनों पसवाडोंमें होवे तिसे लांगलक कहतेहै ॥
समस्तांश्चाग्निना दहेत् ॥ आस्त्रावमार्गान्निःशेषान्नैवं विकुरुते पुनः॥३२॥ इन संपूर्णोको अग्निसे दग्ध कर और संपूर्ण भगंदरोंमें ऐसे विकार होजातेहैं ॥ ३२ ॥
सततं कोष्ठशुद्धौ च भिषक्तस्यान्तरान्तरा॥ और चतुरवैद्य कोष्ठशुद्धिमें भीतरके इलाज करे ॥
लेपो व्रणे बिडालास्थित्रिफलारसकल्कितम् ॥ ३३ ॥ और घावपर बिलावकी हड्डी और त्रिफलेके रसका कल्क बना लेपकरे ॥ ३३ ॥ ज्योतिष्मतीमलयुलाङ्गलिशेलुपाठाकुंभाग्निसर्जकरवीरवचासुधार्केः॥ अभ्यञ्जनाय विपचेत भगन्दराणां तैलं वदन्ति परमं हितमेतदेषाम्॥
और मालकांगनी कालागूलर कटूमर मयूरशिखा लसोडा सोनापाठा निशोत चीता राल कनेर बच थोहर आक इन्होंसे तेलको सिद्धकर भगंदरवालोंको मालिशके वास्ते देवे तो परमाहितकारी है३४
मधुकरोधकणात्रुटिरेणुकाद्विरजनीफलिनीपटुसारिवाः॥ कमलकेसरपद्मकधातकीमदनसर्जरसामयरोधकाः॥३५॥
सवीजपूरच्छदनैरेभिस्तैलं विपाचितम् ॥
भगन्दरापचीकुष्ठमधुमेहत्रणापहम् ॥ ३६ ॥ मुलहटी लोध पीपल इलायची मटर हलदी दारुहलदी चिरौंजी सेंधानमक अनंतमूल कमल के केसर पद्माख धायकेफूल मैनफल राल विडंग लोध ॥ ३५ ॥ बिजोरेके पत्ते इन्होंसे तेलको . सिद्धकर देवे तो यह तेल भगंदर अपची कुष्ठ मधुप्रमेह व्रग इन संपूर्णोको नष्ट करताहै ॥ ३६ ।।
मधुतैलयुता विडङ्गसारत्रिफलामागधिकाकणाश्च लीढाः॥ कृमिकुष्ठभगन्दरप्रमेहक्षतनाडीव्रणरोहणा भवन्ति ॥ ३७॥
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