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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शोध-प्रबन्ध - लेखन / 89 साथ दे दी जाएँ। यह ध्यान रखना चाहिए कि कहीं भी पाद-टिप्पणियाँ दी जाएँ, किन्तु उनकी संकेत-संख्या प्रत्येक पृष्ठ पर सही तथा क्रम बद्ध ढंग से टंकित की जाए। विषय का विवेचन अनर्गल तथा मात्र वर्णनात्मक नहीं होना चाहिए। जो कुछ भी कहा जाए, वह निष्कर्षो तक पहुँचाने वाला हो। कोई भी स्थापना आरंभ में ही नहीं कर देनी चाहिए । प्रत्येक स्थापना के पहले उपयुक्त विवेचन करके प्रमाण और तर्क देने चाहिएँ । प्रत्येक अध्याय के अन्त में प्राप्त निष्कर्षो को सार रूप में अवश्य देना चाहिए। विवेचन के पश्चात् तीसरे भाग उपसंहार आदि की स्थिति आती है। जो भी निष्कर्ष प्रत्येक अध्याय में प्राप्त हुए हैं, उनको व्यवस्थित करके उपसंहार तैयार करना चाहिए तथा उसमें अपने शोध कार्य की निष्पत्ति देनी चाहिए। शोध-प्रबन्ध-लेखन की पूर्वोक्त स्थितियों से पार हो जाने के उपरान्त शोधकर्ता को आरंभ में एक ऐसी प्रस्तावना प्रस्तुत करनी चाहिए, जिसमें शोध कार्य की मौलिक उपलब्धियों का उल्लेख हो तथा ज्ञान-सीमा के विस्तार में उसका योगदान स्पष्ट हो सके । शोध-प्रबन्ध के अन्त में उन समस्त ग्रन्थों और पत्र-पत्रिकाओं की सूची परिशिष्ट में दी जानी चाहिए, जिनकी सहायता ली गई है। यदि कोई विशेष अज्ञात सामग्री मिली हो और जिसके बिना परीक्षक अपना परीक्षण कार्य न कर सके, तो उसे भी परिशिष्ट के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए । शोध-प्रबन्ध की टंकित प्रतियों में प्रायः टंकण की अशुद्धियाँ रह जाती हैं। शोधकर्ता को बहुत सावधानी से उनका निवारण करना चाहिए। अशुद्ध भाषा और अशुद्ध विवरण समस्त शोध कार्य की गरिमा नष्ट कर देते हैं तथा कभी-कभी शोध-प्रबन्ध अस्वीकृत भी हो जाते हैं । भाषा-सम्बन्धी शोध-प्रबन्धों का लेखन तब तक पूर्ण नहीं होता, जब तक शोधकर्ता प्रस्तावना में यह स्पष्ट न करे कि उसने तथ्य-संकलन के लिए कौन-कौन से साधन अपनाये तथा क्षेत्रीय कार्यों के लिए किन-किन क्षेत्रों को चुना। उसे यह भी बताना चाहिए कि भाषिक नमूने किस प्रणाली से एकत्र किये गये तथा वे किस सीमा तक विश्वसनीय हैं। यदि विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों से साक्षात्कार करके नमूने एकत्र किये गये हों, तो उनका भी उल्लेख प्रस्तावना में किया जाना चाहिए तथा यथावश्यक कुछ नमूने एवं साक्षात्कार परिशिष्ट में दिये जाने चाहिएँ। जो प्रश्नावली शोध कार्य में सहायक हुई हो, वह भी परिशिष्ट में दी जा सकती है। अन्त में यही कहा जा सकता है कि शोध प्रविधि का एक महत्त्वपूर्ण अंग शोध-प्रबन्ध-लेखन भी है। यह वह क्षेत्र है, जिसमें शोधार्थी का अंतिम फल चरितार्थ होता है। शोधकर्ता के समस्त श्रम की गरिमा शोध-प्रबन्ध-लेखन के स्तर और स्वरूप पर निर्भर होती है, अतः शोधार्थी को इस ओर आरंभ से ही ध्यान देना चाहिए। For Private And Personal Use Only
SR No.020048
Book TitleAnusandhan Swarup evam Pravidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamgopal Sharma
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1994
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size6 MB
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