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| 18] हिन्दी-अनुसंधान : विकास, उपलब्धियाँ और सुझाव
"हिन्दी-शोध” का विकास और उपलब्धिपरक आकलन करने के लिए आरंभ में ही यह स्पष्ट कर लेना आवश्यक है कि उसकी अर्थ-सीमा का विस्तार कहाँ तक माना जाये। शब्दार्थ की दृष्टि से वह समस्त शोध-कार्य, जो हिन्दी भाषा के माध्यम से किया जाये “हिन्दी-शोध” में सम्मिलित किया जा सकता है। साथ ही वह शोध-कार्य भी जो हिन्दी भाषा और उसके साहित्य से सम्बन्धित है- भले ही वह किसी भी भाषा में प्रस्तुत हुआ हो- “हिन्दी-शोध” की अर्थ-सीमा में आता है। किन्तु ये दोनों ही अर्थ-सीमाएँ उस अर्थ को प्रकट नहीं करतीं,जो मूलतः हमारा अभिप्रेत है। हम हिन्दी-शोध के अंतर्गत न तो उस शोध-कार्य को सम्मिलित करना चाहते हैं,जो हिन्दी भाषा और हिन्दी-साहित्य के अतिरिक्त अन्य विषयों से सम्बन्धित है और न हम उस शोध-कार्य को ही यहाँ हिन्दी-शोध-कार्य मानना चाहते हैं, जो हिन्दी भाषा और साहित्य से तो सम्बन्धित है, किन्तु जो हिन्दी भाषा में प्रस्तुत न होकर अंग्रेजी, फारसी आदि में प्रस्तुत हुआ है। अतः अपनी बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए हम यह कहना चाहते हैं कि हिन्दी-शोध-कार्य के अंतर्गत हम उस समस्त शोध-कार्य पर विचार करेंगे, जिसका सम्बन्ध प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य से है तथा जिसको हिन्दी भाषा में ही प्रस्तुत किया गया है।
उपर्युक्त सीमा में जब हम आज तक सम्पन्न हुए हिन्दी शोध-कार्य पर दृष्टि डालते हैं, तो हमारे सामने यह तथ्य आता है कि उसका विकास दो रूपों में हुआ है : 1. साधनात्मक शोध-कार्य; और 2. कामनात्मक शोध-कार्य।
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