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अग्रवाल जाति का प्राचीन इतिहास ७० होते थे। केवल जन्म द्वारा, अन्य किसी बात द्वारा नहीं, किसी व्यक्ति को गण में अपनी स्थिति प्राप्त होती थी। कौटलीय अर्थ शास्त्र में आचार्य चाणक्य ने जहां संघ-राज्यों ( गणों) में आन्तरिक फूट डाल कर उन्हें जीतने के उपायों का वर्णन किया है, वहां इसी बात का
आश्रय लिया है । उसने अपने 'विजिगीषु' राजा को सलाह दी है, कि गणों में मनुष्यों की कुलीनता के सम्बन्ध में एक दूसरे से आक्षेप कराके उन में फूट डलवावे ।
जब कोई बाहर का आदमी किसी गण राज्य में आकर बसता था तो उसकी भिन्न संज्ञा होती थी। उदाहरण के तौर पर वृजि राज्य को लीजिये । वृजि गण का प्रत्येक आदमी, जो जन, वंश, कुल आदि की दृष्टि से शुद्ध वृजि हो, वृजि कहायेगा । पर दूसरे लोग जो वृजि राज्य में बसे हुवे हों, वृजिक कहावेंगे । यही भेद मद्र और मद्रक में है । मद्र गण का प्रत्येक निवासी, चाहे वह शुद्ध मद्र जाति का हो वा नहीं, मद्रक कहावेगा, पर मद्र उसी को कहेंगे, जो शुद्ध मद्र-जाति का हो । पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में एक गण-राज्य में रहने वाले विविध मनुष्यों के लिये अभिजन' निवास और भक्ति की दृष्टि से जो विविध संज्ञाओं 1. जात्या च सदृशाः सर्व कुलेन सदृशास्तथा।
महाभारत, शान्तिपर्व १०७, ३० 2. कौटलीय अर्थशास्त्र I] p. 368 3. महाभाष्य Vol.II, pp. 314-15) 4. अभिजनश्च ४,३,६० 5. सोऽस्य निवासः ४,३,८६ (H. भक्ति ४,३,६५
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