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उरु चरितम्
सम्मतिं धर्मानुगाम् ॥६५
ग्लानिरुत्थिता ॥६६
समागतौ ।
यत्र वृन्दकः ॥६७
दर्शकानामृषीणाञ्च विदुषां अग्रसेन श्रयाते मंडपा हि जयध्वनैः I गुञ्जायमान्नो ह्यभवत् सर्वे हर्ष प्रचक्रिरे ॥६८ पण्डितानां समादेशात् राजा पीठमुपाविशत् ॥६६ अग्रसेनेन गोः शिष्य शूरसेनेन वै पुनः कन्याश्चैव सुताश्चैव यागे प्रस्थापिताः स्वयम् || १००
शूरसेनोऽग्रसेनस्य
श्रुत्वा वै तस्य मनसि हिंसाता
सहोदरौ राजप्रासादात् यज्ञभूमि
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चाहिये । मेरा वचन तुम्हें मानना चाहिये, और यह प्रतिज्ञा करनी चाहिये, कि हमारे वंश में कोई भी हिंसा कर्म न करे । ९२-९५
अग्रसेन की धर्मानुकूल सम्मति सुन कर शूरसेन के मन में भी हिंसा के प्रति ग्लानि हो गई। दोनों भाई राजमहल से यज्ञभूमि को आये । वहां दर्शक, ऋषि, मुनि और विद्वानों का बड़ा भारी समूह उपस्थित था । ९६-९७
अग्रसेन के आने पर सारा यज्ञ मण्डप जय ध्वनियों से गूंज उठा । सब लोगों ने हर्ष प्रगट किया । ९८
पण्डितों के निर्देश पर राजा पीठ पर बैठ गया । ९९
हे शिष्य ! तब अग्रसेन और शूरसेन ने अपनी सब कन्याओं तथा पुत्रों को यज्ञ में बुलाये । १००
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