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महालक्ष्मी व्रत कथा
त्वं चापि कुरु तां पूजां याहि राज्यमवाप्नुहि
प्रीतिर्भवतु ऋषिणा चायोध्यां पुनरेष्यसि ॥ ११५ अथ सन्मार्गमुद्धिश्यागात् तोगः स्वमालयम्
तथा कृत्वा महीपस्तु ययौ राज्यस्थलीं शुभाम् ॥ ११५ )
श्रीकृष्ण उवाच
अथ ते
कथितं राजन् व्रतानां व्रतमुत्तमम्
यत्कृत्वा श्री हरिश्चन्द्रो लेभे सौख्यं श्रियं निजाम् ||११६ श्रियं चेदिच्छसि परां धनधान्ययशः सुतान्
तत्कुरुष्व महाबाहो व्रतमेतत् स्वबन्धुभिः ॥ ११७ मयाप्येतत् व्रतं राजन् क्रियते भक्तितस्सदा नरेशसु भाग्यवान् सोऽपि श्रार्यावर्ते भविष्यति ॥११८
हो जावे । तू फिर अयोध्या चला जावे । इस तरह सन्मार्ग का उपदेश कर तोग अपने घर चला गया । राजा ( हरिश्चन्द्र ) ने ऐसा ही किया और वह फिर अपनी शुभ राजधानी को चला गया । ११३-११५
हे राजन् ! मैंने तुम्हें सब व्रतों में उत्तम व्रत का कथन किया है, जिसे करके श्री हरिश्चन्द्र ने सौख्य और अपनी श्री को प्राप्त किया था । यदि तुम भी उत्कृष्ट श्री, धन, धान्य, यश और पुत्रों की इच्छा करते हो, तो हे महाबाहो ! तुम भी अपने बन्धुवों के साथ इस व्रत का पालन करो। मैं भी, हे राजन् ! यह व्रत सदा भक्ति के साथ करता हूँ । ११६-११८ जो कोई राजाओं में ( इस व्रत को करेगा ), वह आर्यावर्त में
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