________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
१६५
www.kobatirth.org
नारद उवाच
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
महालक्ष्मी व्रत कथा
शूर सैने गते देशे वैश्यनाथे शचीपतिः ॥१०६
नारदात् सर्वमाश्रत्य सर्वमाश्रुत्य कारणां
पूर्वभाषितम्
नारदः ॥ १०७
ऐरावतं समारूढः सन्ध्यर्थ सह दृष्ट्वा तपोनिधिं नत्वा प्रपूज्य प्रसृतोऽब्रवीत्
ब्रह्म ! अनुजानीहि मानवानुचरं परम् ॥१०८
करोमि मनसा वाचा कर्मणा तेऽनुशासनम् !
सन्धिं कुरु त्वमिन्द्रेण वृथा द्रोहेण भूपते
राजा (महीरथ ने ) बहुत से हाथी, घोड़े, रथ, पदाति, दास, दासी, स्वर्ण, रत्न, उत्तम वस्त्र, आदि प्रदान किये। जिस प्रकार सागर महासमुद्र की ओर जाता है, वैसे ही इन सब ( उपहारों ) को लेकर राजा वापिस चला गया । १०५-१०६
जब वैश्यों का स्वामी ( राजा अग्र ) शूरसेन देश को चला गया, तो शची पति (इन्द्र ) ने यह सब वृत्तान्त नारद से सुना । ऐरावत पर चढ़ कर सन्धि के लिये वह नारद के साथ आगया । १०६-१०७
तपोनिधि (नारद ) को देख कर राजा ने उसे प्रणाम किया, और उसकी भलीभांति पूजा सत्कार कर उसे कहा- 'हे ब्रह्मर्षे ! मुझे आप पूरी तरह अपना सेवक समझें । जो कुछ आप आशा करेंगे वह मन, वचन, कर्म से पालन करूंगा ।' १०८ - १०९
नारद ने कहा
For Private and Personal Use Only