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अगरोहा का पतन और अन्त की आधीनता में रहे । जब कभी कोई सम्राट निर्बल हुए, तो इस अवसर से लाभ उठाकर अपनी राजनीतिक सत्ता को पुनः स्थापित करने से भी गणराज्य चूके नहीं । केन्द्रीभाव ( Centralisation ) और अकेन्द्रीभाव ( Decentralisation ) की प्रवृत्तियों में निरन्तर संघर्ष चलता रहा । जब भी गणराज्यों को अवसर मिला, वे स्वतन्त्र हो गये । पर ज्यों ही कोई सम्राट शक्तिशाली हुवा, उसने उन्हें जीतकर पुनः अपने श्राधीन कर लिया । इस दीर्घकाल में अगरोहा के आग्रेय गण की भी यही गति होती रही होगी । मागध और कुशान साम्राज्यों की वह श्राधीनता में ही रहा होगा। गुप्त और वर्धन वंशों के क्षीण होने पर भारत में कोई एक शक्तिशाली साम्राज्य नहीं रहा। अब फिर भारत अनेक राज्यों में विभक्त हो गया। पर इस समय जो नये विविध राज्य स्थापित हुवे, उनके संस्थापक राजपूत लोग थे, जो भारतीय इतिहास के रङ्ग-मञ्च पर नवीन प्रगट हुवे थे। भारत के पुराने गण-राज्य इतनी शताब्दियों के संघर्ष तथा प्राधीनता के कारण अपनी राजनीतिक सत्ता खो चुके थे । उनका स्थान अब नई राजनीतिक शक्तियों ने लिया, जो राजपूत कहाती हैं । ये राजपूत कौन थे ? ये उन विदेशी हूण जातियों के प्रतिनिधि थे, जिन्होंने अपने निरन्तर आक्रमण से मागध साम्राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया था, या भारत की कुछ ऐसी प्राचीन जातियों के वंशज थे, जिनकी राजनैतिक व सैन्य-शक्ति मागध और कुशान साम्राज्यों द्वारा नष्ट होने से रह गई थी-इस विवादास्पद प्रश्न पर विचार करने की हमें यहां आवश्यकता नहीं है । पर यह स्पष्ट है, कि तोमर या तुंअर नाम की एक राजपूत जाति से आठवीं सदी के समाप्त
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