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भूमिका
में
मैंने इस पुस्तक में यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है, कि प्राचीन काल भारत में बहुत से छोटे छोटे राज्य थे, जिन्हें गणराज्य कहा जाता था । प्रत्येक गणराज्य के अपने कानून, अपने रीतिरिवाज तथा अपनी पृथक् विशेषतायें होती थीं। जब भारत में साम्राज्यवाद का विकास हुवा तो इन गणराज्यों की राजनीतिक स्वतंत्रता नष्ट हो गई। शैशुनाग, मौर्य, कुशान आदि विविध वंशों के सम्राटों के शासन काल में इन गणराज्यों के लिये अपनी राजनीतिक सत्ता को कायम रख सकना असम्भव हो, गया । पर साम्राज्यवाद के इस विस्तृत काल में भी इन गणों की पृथक् सामाजिक और आर्थिक सत्ता कायम रही । भारत के सम्राट् सहिष्णु थे । इस देश के नीति शास्त्र प्रणेताओं की यह नीति थी, कि इन गणों के अपने धर्म, कानून, रीतिरिवाज आदि को न केवल सहा ही जाय, पर उन्हें अपने धर्म, कानून, और रीतिरिवाज पर कायम भी रखा जाय । भारत के ये सम्राट् विविध व्यक्तियों के समान विविध गणों को भी उन के 'स्वधर्म' पर कायम रखना अपना कर्तव्य समझते थे । इसका परिणाम यह हुवा, कि गणों की राजनीतिक सत्ता नष्ट हो जाने पर भी उनकी सामाजिक पृथक् सत्ता जारी रही, इसी से वे धीरे धीरे जात बिरादरियों के रूप में परिणत हो गये । प्राचीन यूरोप में भी भारत के ही समान गणराज्य थे । पर यूरोप में जब साम्राज्यवाद का विकास हुवा तो वहां के सम्राटों ने गणराज्यों की न केवल राजनीतिक सत्ता को ही नष्ट किया, पर साथ ही उनके धर्म, कानून, रीतिरिवाज आदि को भी नष्ट किया । रोमन सम्राट् अपने सारे साम्राज्य में एक रोमन कानून जारी करने के लिए उत्सुक रहते थे । भारतीय सम्राटों के समान वे सहिष्णुता की नीति के पक्षपाती नहीं थे । यही कारण है, कि यूरोप के गणराज्य भारत के समान जात बिरादरियों में परिणत नहीं हो सके । अपने इस मन्तब्य को मैंने इस ग्रन्थ में विस्तार से स्पष्ट किया है ।
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