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आचा०
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सेभिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहाबइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिउकामे से जाई पुण कुलाई जाणिज्जा - इमेसु खलु कुले निइए पिंडे दिज्जइ अग्गपिंडे दिज्जर नियए भाए दिज्जई नियए अवड्ढभाए दिज्जइ. तहप्पगाराई कुलाई निइयाई निउमाणाई नो भत्ताप वा पाणाए वा पविसिज्ज वा निक्खमिज्ज वा । एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सम्बद्वेहिं समिए सयाजए [मू० ९] तिमि ॥ पिण्डैपणाध्ययन आद्य देशकः ।। १-१-१॥ भिक्षुक गृहस्थीना घरमां जवानी इच्छावाळो आवां कुळा जाणे के, आ कुळोमां नित्य पिंड (पोप) अपाय छे, तथा अग्रपिंड कमोदनो भात विगेरे प्रथमथी भिक्षामा स्थापीने अपाय छे, ते अग्रपिंड नित्य भाग अर्धपोष अपाय छे, तथा पोषनो चोथो भाग अपाय छे, तेवा नित्य दानयुक्त कुल, नित्य दान देवाथी स्वपक्ष तथा परपक्षना साधुओं जाय छे. तेनो भावार्थ आ छे के, स्वपक्ष ते सयंत, परपक्ष वाकीना भिक्षुको ते वधा भिक्षामाटे जता होय, अने ते दानदेनारा एम समजे के घणा भिक्षुकोवे आपीए एथी घणो आरंभ करी तेओ छए कायनो आरंभ करे, अने थोडं रांधे तो बधाने अंतराय धाय माटे बधारे रांधे एवा स्थानमां उत्तम साधु गोचरी माटे के पाणी माटे त्यां न जाय, हवे बधानो उपसंहार करे छे.
प्रथमथी छेवटी ते भिक्षुने समग्र जे उद्गम, उत्पादन ग्रहण एषणा संयोजना [ प्रमाणथी वधारे] अंगार धुमकारणोवडे समजीने सुपरिशुद्ध पिंड साधुओए लेवो, तेज ज्ञानाचार समग्रता दर्शन चारित्र तप अने वीर्याचार संपन्नता छे. अथवा आ सूत्रवडे समग्रता देखाडे छे, के जे सरस विरस विगेरे आहार मळे छे, तेनाथी अथवा रूप रस गंध स्पर्शवडे साधु समित छे. अर्थात् समभाव राखनार संयत छे, अथवा पांच समितिथी समित छे, शुभ अशुभमां रागद्वेष रहित छे, आवो साधु हित साधवाथी सहित
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सूत्रम्
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