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आचा० ते भावभिक्ष गृहस्थना घरमां गयेलो होय, त्यां शालीवीज विगेरे औषधि होय तेने आ प्रमाणे जाणे के आ वधी हणायेली ||
सूत्रम् लानथी [सचित्त छे] आमां पण चोभंगी हे, तेमां द्रव्यकृत्स्ना ते अशस्त्र उपहत [शखथी हणायेली नथी,] भावकृत्स्ना ते सचित्त | ॥८६७॥ || छे. तेमां कृत्स्ना आ पदवडे चार भांगामांना पहेला त्रण लेवा, एटले द्रव्यथी तथा भावथी बन्ने प्रकारे अचित्त थयेली होय ते ||11८६७।।
चोथो भांगो लेवो कल्पे. बाकीना त्रण भांगावाळी न कल्पे. . “सासियाओ" ति-जीवनुं स्वपणुं ते उपजवानुं स्थान प्रत्याश्रय जेमा छे, ते स्वाश्रय छे. अर्थात् अविनष्टयोनिवाळु अनाज
छे, अने आगममां पण केटलीक औषधि (अनाज) नो अविनष्ट योनिकाल बताव्यो छे, ते आ प्रमाणे-"एतेसिणं भंते ! सालीणं | K के वइ कालं जोणी संचिटइ" ? एवा मूत्र पाठो छे, [गौतमस्वामी पूछे छे के हे भगवन् आ कमोदनी योनि केटलो काळ सचित्त || 6 (उपजवा योग्य) छे. विगेरे ['अविदल कडाओ' शि-ज्यांसुधी वे फाडचा उपरथी नीचे सुधी सरखां न कर्या होय अर्थात् दाळ
न बनावी होय. [कठोळनी माये दाळ सर्वत्र बने छे] 'अतिरिच्छच्छिन्नाओ' ति-कंदली करेली न होय ते. ए द्रव्यथी कृत्स्न
(आखी) हे अने भावथी सचित्त होय के न होय. ४ तेज प्रमाणे “अवोच्छिनाओ" ति-जीव रहित न थइ होय, ते अर्थात् भावथी कृत्त (आखी सचित्त) होय, तथा 'तरुणियं लवा छिवार्डि' त्ति-अपरिपक्व मग विगेरेनी शींग [फळी] तेनुन विशेष कहे छे. 'अणभिक्त भजिय' शि-जीवितथी अभिक्रान्त
न होय अर्थात् सचिन होय तथा 'अभजिय' अमर्दित 'अविराधित' होय आ प्रमाणे आनो आहार खावायोग्य होय, पण ते अपा18सुक अथवा अने पणीय पोते देखीने सचिन जाणतो होय तो, गृहस्थ आपे तो पण पोते सचिनने ग्रहण करे नहि, हवे तेथी उलटुं 8
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