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आचा०
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सकल अर्थनी उत्पत्ति पण अर्धा पतिर्थी सिद्ध यती नयी. तेथी जे प्रत्यक्ष अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्तिथी, दूर छे. अने आ संबंधी छट्टा ममाणना विषयनो अभाव छे. तो आत्मा सिद्ध भइ शकतोज नथी ते प्रयोगथी बतावे छे (१) प्रतिज्ञा--आत्मा नधीज हेतु-कारण ते प्रमाण पंचकना विषथी दूर के टांत-गधेडाना सोंगडा माफक
तेना अभावमा विशिष्ट संज्ञाना प्रतिषेधन अभावना संभव वडे सूत्रनी उत्पत्तिन नथी ( बादी कहे छे के. प्रमाण पंचकथी आत्मा सिद्ध यतो नथी तो पछी सूनी रचना करवानुं कारण शुं) जैनाचार्यनुं समाधान,
जे कां ते सघद्धं गुरुनी सेवा कर्या विना स्वच्छंदाचातु वचन छे सांभलो.
प्रतिज्ञा---(१) आत्मा प्रत्यक्षण छे, तेनो गुण ज्ञान छे हेतु - तेनुं पोताना ज्ञानधीन सिद्धपणुं छे. अने स्वसंवित् निष्टाओ द्रष्टति विषयनी व्यवस्थितिओ छे. घट पट विगेरेने पण रूपादि गुण प्रत्यक्षपणे आंखनी सामेज छे तेथी, मरणना अभावना प्रसंगथी भूतोनो गुण चैतन्य छे एवी शंका न करवी. कारण के तेओनो तेनी साथे हमेशां सन्निधाननो संभव छे. त्यागवा योग्य, | ग्रहण करवा योग्य त्यागनुं लेवं, ए बधानी प्रवृतिना अनुमान वढे आपणी माफक पारका आत्मानी पण सिद्धि थाय छे. आ प्रमाणे एज दिशाए उपमान आदि प्रमाणने पण पोतानी बुद्धि वडे पोताना विषयमा डाह्या माणसे यथा संभव योजवां केवळ मौनीन्द्र ( जिनेश्वर ) ना आ आगम वडेज विशिष्ट संज्ञा निषेधना द्वार वडे हुं हुं एम आत्माना उल्लेख बडे आत्मानो सद्भाव सिद्ध कर्यो छे अने जैनागम शिवायना बीजा आगमो अनाप्त पुरुषना बनावेलां होवाथी अ प्रमाणज छे,
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सूत्रम ॥ ४६ ॥