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आचा०
॥ १४ ॥
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भने पापनुं प्रायश्रित लेवु ं गुणी ओनो विनय करवो, नेमने योग्य वस्तु पूरी पाडवी, धर्मज्ञान भणवु अशुभ ध्यान छोडीने निर्मळ ध्यान करवु तथा काउसरण करतो, ए छ प्रकारे अभ्यंतर तप के वीर्याचार अनेक प्रकारे है,
अणिमूहियबल बिरिओ परक्कमइ जो जहूत्तमाउणे । जुंजइय जहाथामं नायब्वो वीरियायारो ॥ ६ ॥ धर्मना काममां परमार्थना काममां, पोतानुं बळ अने उत्साह यथायोग्यपणे उपयोगमां बापरे ए वीर्याचार जाणो. जेमा धर्मक्रियामां बेस उठवु नमस्कार करवो, जत्रु आवत्रु ए बधाय विधिपूर्वक उल्लासयी चित्त स्थिर राखीने निभलपणे करे, आ पांच प्रकारनो आधार बतावनार आ सूत्र भाव आचार के एम वधी जग्योर जाणवु हवे आचारनी पछी आचालनी व्याख्या करे छे. अतिगाढ (चीकणां) कर्म जेनावडे सर्वथा चलायमान थइ जाय ते आचाल छे तेनो निक्षेपो चार प्रकारे छे, नाम स्थापना छोडीने द्रव्यनिक्षेपामां शशरीर, भव्य शरीर छोडीने तेनाथी जुदो द्रव्य आचाल ते वायु छे, ( के ते वायु वधाने कंपावे छे) अने भाव आलम आ पांच प्रकारनो ज्ञानादि आचारज जाणवो, हवे आगल शब्दनो निक्षेपो लखे छे, आगालन तेज समय| देशमां रहे छे. तेना चार निक्षेपा थाय छे, नामस्थापना सुगम छे, द्रव्यमां ज्ञ शरीर, भव्य शरीर, शिवाय व्यतिरिक्तमां पाणी | विगेरेतु नियाणमां रहेवानुं छे. अने भाव आगाल ते ज्ञानादिक पांच आचार छे, ते आवारो रागादि रहित आत्मामां रहे छे. हवे आकर लखे छे, तेनी अंदर आवीने करे ते आकर, तेना चार मकारे निक्षेपा छे. द्रव्य व्यतिरिक्त निक्षेपामां चांदी विगेरे नी खाणो छे अने भाव आकारमां ज्ञानादि आचार छे, तेनुं प्रतिपादन करनार आन ग्रन्थ के निर्जरादि रत्नो जे आत्माना गुण
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सूत्रम ॥ १४ ॥