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आचा०
॥ १५८॥
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स्पतिकायने प्रथम कहीए छीए. ए प्रमाणे संबंधथी आवेला आ वनस्पतिकायनां चार अनुयोगद्वार कहेवां; ज्यांसुधी नाम निष्पन्न निक्षेपमां वनस्पति उद्देशा छे, ते वनस्पतिना पोताना भेदनो समूह बतावा पूर्व प्रसिद्ध अर्थनां दुकाणना द्वारवडे नियुक्तिकार कहे छे, पुढवीए जे दारावणसइकाएवि हुंति ते चेव । नाणत्ती उ विहाणे, परिमाणुत्र भोग सत्थे य ॥ १२६ ॥ पृथिवीकायनां जाणवा माटे जे द्वारो कलां, तेज अर्धी वनस्पतिमां जाणयां; पण जुदापणुं मरुपणा परिमाण उपभोग, शस्त्रो, अने च शब्दश्री लक्षणमां पण जुदापशुं जाणवुः तेमां प्रथम प्ररूपणा स्वरूप बताववा कहे छे. दुविह वणस्सइजीवा सुहुमा सह बायरां य लोगंमि । सुहुमाय सब लोए दो चेत्र य बायरंविहाणा ॥ १२७ ॥ वनस्पति सुक्ष्म अने बादर, एम वे भेदे छे, तेमां सूक्ष्म छे, ते सर्वलोकमां व्याप्त अने एकाकार होवाथी चक्षुथी ग्रहण यती नथी. बोंदरना वे भेद छे ते बतावे छे.
या साहारण, बायरजीवा
समासओ दुविहा । बारसविणेगविहा समासओ छबिहा हुति ॥ १२८॥
समासथी बादर ये प्रकारे छे. प्रत्येक अने साधारण, तेमां पांदडां फुल, फळ, मुळ, स्कंध विगेरे दरेकमा जुदोजुदो जीव जे वनस्पतिमां होय, ते प्रत्येक वनस्पति जीव जाणवा, अने साधारण वनस्पति जीवो एक बीजाने जोडायला अनन्त जीवोनो समूह एक शरीरमां साथ रहेला छे. प्रत्येक शरीरवाळाना वार भेदो छे, अने साधरणना अनेक भेदो छे, पण ते समासथी छ प्रकारे जाणवा, तेमां प्रथम प्रत्येक वनस्पतिना वार भेद बतावे छे.
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सूत्रम्
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