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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ८१५ लिए इस रोग में प्लीहावृद्धि पाई जा सकती है। प्लीहोदर हाजकिनामय का एक माना हुआ लक्षण है। ज्वर भी साथ साथ मिल सकता है। लसीकोशोत्कर्ष तथा प्रवृद्धिशील उत्तरजात रक्तक्षय के लक्षण भी मिल सकते हैं। इस रोग में रक्त चित्र परीक्षा एक बहुत आवश्यक अंग रहना चाहिए। कुछ को असितरतीय सितरक्तता ( aleukaemic leukaemia) मिल सकता है। कुएड्रेट द्वारा वर्णित शुद्ध लससङ्कट बहुत कम पाया जाता है ऐसा आधुनिक विद्वानों का मत है। प्रत्यक्ष दर्शन करने से लससंकट और हाजकिनामय में कोई भेद प्रकट नहीं होता परन्तु लससंकट में लसग्रन्थि के प्रावर के फट जाने की प्रवृत्ति अधिक होती है और समीपस्थ ऊतियों में ऊतिनाश और आक्रमण करने की बहुत बड़ी क्षमता देखी जाती है। दूसरे से उतिनाश कम होता है और वहाँ पीले सिध्म नहीं पाये जाते । आन्त्र की लसमय उति के बहुत सूज जाने से उसके भीतरी अंग में गाँठे बन जाती हैं। उदर अथवा वक्षगुहायें अर्बुदपुंजों से भर जाती हैं तथा फुफ्फुसों में बहुत अधिक भरमार हो जाती है। एक चित्र लससंकट के आन्त्र लसग्रन्थकों में उत्पन्न होने का दिया जा रहा है। उसे देखकर अनुमान किया जा सकता है कि यह संकट कितना भयानक होता है। अण्वीक्षण करने पर पूर्ण प्रगल्भ लसको शाओं के स्थान पर उनसे आकार में बड़े परमवर्णिक कोशा पाये जाते हैं जिनमें थोड़ा सा पीठरंज्य कायाणुरस रहता है। साथ ही एक गोल या अण्डाकार न्यष्टि मिलती है जिसके अन्दर बड़ी और स्पष्टतः प्रकट होने वाली एक निन्यष्टि रहती है। इसमें सूत्रिभाजना मिलती है पर उसकी पहचान करना बहुत कठिन पड़ता है। इस रोग में कोशाओं की समानता एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण लक्षण है। हाजकिनामय में कोशाओं का नानारूपत्व प्रधान होता है। रजत अभिरञ्जनों से देखने पर इसमें जालिका में वृद्धि नहीं पाई जाती। जो भी जालिकातन्तु इसमें पाये जाते हैं वे तो मूल से ही लसग्रन्थि में पाये जानेवाले होते हैं। यदि किसी क्षेत्र का अण्वीक्षण किया जावे तो । इन प्राकृतिक जालिका तन्तुओं के बीच बीच में सङ्कटकोशा आ जाते हैं जिसके कारण इनकी संख्या घटी सी मालूम पड़ती है। किसी किसी रोग में अपेक्षा इसके कि एक क्षेत्र में लसग्रन्थकों में वृद्धि हो और फिर अन्य भागों को उसका विप्रथन हो, एक साथ एक सामान्यित वृद्धि देखी जाती है। ऐसी अवस्था में जो मूल रचना होती है उसका स्थान प्रगल्भ लसीकोशा ले लेते हैं। ऐसी अवस्था में लसीय सितरक्तता (lymphatic leukaemia) तथा इसमें कोई अन्तर करना बड़ा कठिन हो जाता है। रक्तचित्र ही एक मात्र पहचान का साधन होता है। इस अवस्था को लसकायार्बुद ( lymphocytoma) कहा जाता है। यह अन्त में लसीय सितरक्तता में बदल सकता, है ऐसा ब्वायड मानता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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