SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 899
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८१६ विकृतिविज्ञान जालिकाकोशीय सङ्कट ( Reticulum-cell Sarcoma) इसे जालकीय सङ्कट ( retico sarcoma ) भी कहा जाता है। जालिकाओं की बहुरूपता (polymorphism) जो जालिकान्तश्छदीय संस्थान में पाई जाती है, के कारण जब इस संस्थान में कोई सङ्कटार्बुद बनता है तो उसका रूप कई प्रकार के औतकीय चित्र उपस्थित करता है। ऐसे पाँच रूप रौबस्मिथ ने बतलाये हैं। इनमें एक रूप वह है जिसमें वे अर्बुद आते हैं जिनके कोशा अविभिन्नित रहते हैं तथा एक संकोशीय (भक्षक)स्तार (syncitial sheet) मात्र बन जाती है। दूसरा रूप वह होता है जिसमें अर्बुदकोशा जालकि ( reticulin) बनाते हैं जिसके कारण वे तन्वीय ( fibrillary ) कहे जाते हैं; तीसरे रूप के अर्बुदों के कोशा किसी एक या दूसरे शोणिककोशा ( haemic cell ) में विभिनित होते हैं; चतुर्थ प्रकार के अर्बुदों में औतिकीयरूप मिश्रित ( mixed ) होता है तथा पञ्चम रूप में अर्बुद के कोशा वेलातटीय कोशाओं ( littoral cells) से ही उत्पन्न होते हैं। उपर्युक्त रौबस्मिथीय श्रेणी विभाजन अत्यन्त जटिल होता है पर इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जालिकीय सङ्कट में कितने कितने रूप और प्रकार देखने में आ सकते हैं और इसकी पहचान में औतिकीय निदान का ठोक ठीक समझ लेना कितना आवश्यक है। तृतीय वर्ग के सङ्कट सर्वाधिक प्रमाण में मिलते हैं जबकि अन्तिम पञ्चम वर्ग के संकट बहुत कम पाये जाने हैं। इस अर्बुद को लससंकट का ही एक रूप मानकर इसका नाम जालिका-लससंकट ( reticulum lympho sarcoma ) भी कहा जाता है। यह कई अवस्थाओं में मिल सकता है। जिसमें अस्थि भी एक है जहाँ यह एक प्रकार का अस्थिसंकट उत्पन्न करता है। अतः यही अच्छा है कि इसे जालिका संकट नाम से ही पुकारा जावे। यह रोग अत्यन्त मारक है। रोगी अधिक से अधिक दो वर्ष जीता है। लससंकट की अपेक्षा जालिकाकोशीयसंकट बहुत अधिक मिलने वाला लसतन्तुकों का अर्बुद है। इसका अण्वीक्ष्ण चित्र बहुत क्षणिक होता है। यह तभी मिलता है जब अभिरंजन दृढता से किया जावे। जालिकाकोशाओं का कायाणुरस बहुत अधिक होता है और स्वल्प अम्लरंज्य माना जाता है। जालिकाकोशाओं की न्यष्टि लसकोशाओं की न्यष्टि से दुगुनी होती है । वह अन्दर की ओर ऐसे मुड़ी होती है कि उसकी आकृति वृक्करूपी (reniform ) हो जाती है । ठीक प्रकार सुदृढ़ किये चित्र में कोशारस तथा न्यष्टि दोनों से निकले और बढ़े हुए कूटपाद समप्रवर्धन (pseudopodlike process) जो कामरूपीय (amoeboid) क्रियाशीलता को एक जीवित कोशा में व्यक्त करते हैं इसका एक बहुत महत्व का लक्षण है । अर्बुद कोशा-सिरा-प्राचीरों में भरमार करते हुए बहुधा मिलते हैं। वे कभी कभी तो सिरा सुषिरक को पूर्णतः भर देते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy